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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः २४७ लब्धिको कारण मानकर उपजा जो तैजस शरीर है, वह दो प्रकारका है । एक तो शरीर से बाहर निकला हुआ निस्सरणात्मक है और दूसरा शरीरसे बाहर नहीं निकल रहा अनिस्सरणात्मक है । पहिला निस्सरणात्मक तैजसशरीर तो प्रशस्त और अप्रशस्त भेदसे दो प्रकारका है । जो तपस्वी ऋषिके प्रसादकी अपेक्षा रखता हुआ और दुर्भिक्ष, महामारी रोग आदि व्याधियोंका निराकरण करता हुआ सुभिक्ष, सुख, शान्ति, अनुग्रह, आदिका संपादक है, वह प्रशस्त तैजस है । और जो अत्यन्त क्रुद्ध हुये द्वीपायन मुनिके समान ऋषिके वामबाहुसे निकलकर इधर उधर कितने ही नियत क्षेत्रको दग्ध करता हुआ पुनः मुनिके मूलशरीर को भी दग्ध कर देता है वह पुतला अप्रशस्त तैजस है। छठे या सातवें गुणस्थानसे उतरकर अत्यन्त क्रुद्ध हुये मुनिके पहिला गुणस्थान होजाता है । लब्धिस्वरूप कारणसे उत्पन्न हुआ होनेसे ही यह तैजसशरीर भिन्न हो रहा अन्य शरीरोंसे निराला समझ लेना चाहिये । किन्तु जो सम्पूर्ण संसारी जीवोंके साधारण रूपसे पाया जा रहा तैजसशरीर है वह तो अपने अपने कार्यके भेदसे भिन्न ही समझ लिया जाओ । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, शरीरोंके भीतर प्रविष्ट होरहा शरीरोंकी सामान्यदीप्तिका कारण आनस्सरणात्मक तैजस है। 1 तैजसवैक्रियिकयोः लब्धिप्रत्ययत्वाविशेषादभेदप्रसंग इति चेन्न, कर्मभेदकारणकत्वाद्भेदोपपत्तेः । सत्यपि तयोर्लब्धिप्रत्ययत्वे तैजसवैक्रियिकनामकर्मविशेषोदयापेक्षत्वाद्भेदो युज्यत एव । यहां कोई शंका करता है कि लब्धिको कारण मानकर जब कोई तैजसशरीर उपज रहा है और लब्धनामक कारणसे किसी वैक्रियिक शरीरका भी उपजना स्वीकार किया गया है, ऐसी दशामें कारणके अभेदसे कार्यका भी अभेद होजायगा । दोनों शरीरोंकी उत्पत्ति करनेमें लब्धिको कारणपना विशेषतारहित होकर विद्यमान है । अतः तैजस और वैक्रियिक शरीरों के अभेद होजाने का प्रसंग आता है। आचार्य कहते हैं यह तो नहीं कहना । क्योंकि भिन्न भिन्न कर्मोंको कारण मानकर वे दोनों शरीर उपजते हैं । अतः दोनोंमें भेद बन रहा है । यद्यपि उन दोनोंमें लब्धिप्रत्ययपना सामान्य रूपसे विद्यमान है, तो भी तैजस या वैक्रियिक इन दो विशेष नामकर्मोंके उदयकी अपेक्षा रखनेवाले होनेसे उनमें भेद पड जाना युक्तिपूर्ण ही है । अर्थात् — तपस्वियोंमें या अन्य तिर्यंच, मनुष्यों में वैक्रयिकशरीर नामकर्मका उदय नहीं है, लब्धि करके विक्रिया करते समय मुनिके औदारिक शरीर नामक नामकर्मका ही उदय है । किन्तु विक्रियात्मक प्रयोजनको धारनेवाले विशेष औदारिकशरीरको यहां " वैक्रियिक नामकर्म " यह विशेष संज्ञा दे दी गई है । तेजोवर्गणासे साधारण सूक्ष्म तैजसशरीर बनाया जाय, 1 अथवा लब्धिप्रत्यय तैजस पुतला बनाया जाय, सर्वदा तैजसशरीर संज्ञक नामकर्मका उदय बना रहना स्पष्ट ही है । दूसरी बात यह है कि लब्धि शब्द भलें ही एकादृश होय किन्तु दोनों लब्धियों की जाति न्यारी न्यारी है । भिन्न कारणोंसे भिन्न कार्य हो जाना समुचित है । 1 I संप्रत्याहारकं शरीरमुपदर्शयति ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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