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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः हो सकती है । अर्थात्-अग्नि गांठकी उष्ण है तब तो अनुष्ण जल आदि पदार्थोंसे उसकी व्यावृत्ति हो सकती हैं । किन्तु जो निजस्वरूपसे उष्ण पदार्थ नहीं है उसकी अनुष्णव्यावृत्ति असंभव है । अन्यथा जलके भी अनुष्णव्यावृत्ति बन बैठेगी । दूसरी बात यह है कि ज्ञान आत्मक बुद्धको शरीरीपना वस्तुभूत सिद्ध हो जाय, तब तो शरीरीसे भिन्न शरीर आदि से उसकी व्यावृत्ति सधपाये और व्यावृत्ति सध चुकनेपर शरीरीपन ( कल्पित ) और अशरीरपिन ससके । तीसरी बात यह भी है कि चालिनी न्यायसे बुद्धमें किसी भी व्यावृत्तिकी कल्पना नहीं हो सकती है। क्योंकि शरीरत्व सिद्ध करते समय शरीरसे भिन्न शरीरीपन या अशरीरीपन भी व्यावृत्त हो जायगा । बुद्धमें इनकी भी व्यावृत्ति हो जावेगी तथा शरीरीपनको साधते समय शरीरित्वसे भिन्न शरीरत्वकी भी व्यावृत्ति बुद्धमें घुस जावेगी । ि कारण उक्त पांच शरीरोंसे न्यारा कोई स्वाभाविक शरीर नाममात्रको भी नहीं है । २३३ यत्पुनरातिवाहिकं नैर्माणिकं च तदस्मदभिमतमेवेत्याह । जो भी फिर किसीने आतिवाहिक और नैर्माणिक ये दो शरीर माने हैं, वे तो हमको अभीष्ट ही हैं, इसी बातको ग्रन्थकार स्पष्ट कहते हैं । कामणांतर्गतं युक्तं शरीरं चातिवाहिकं । नैर्माणिकं तु यत्तेषां तन्नो वैक्रियिकं मतं ॥ ८ ॥ दोनोंमें पहिला आतिवाहिक शरीर तो कार्मण शरीरमें अन्तर्भूत हो जाता है । अतः भले ही आतिवाहिक शरीर मान लो उचित ही है और जो उनके यहां नैर्माणिक शरीर माना गया ह वह तो हम जैन के यहां वैक्रियिक शरीर माना जा चुका है । अर्थात् यहां वहां अनेक योनियो में परिभ्रमण करानेवाला आतिवाहिक शरीर कार्मण शरीर ही तो है तथा स्वल्प कालमें भोगनेके लिये रचे गये नैर्माणिक शरीर वैकियिक शरीर ही समझे जाते हैं । अतः विरोध नहीं आता है । अधिक भोगों को जैन सिद्धांत से कोई सांभोगिकं पुनरौदारिकादिशरीरत्रयमप्रतिषिद्धमेवेति न शरीरांतरमस्ति । जिनका प्रयोजन सम्भोग करना है ऐसे साम्भोगिक शरीर तो फिर औदारिक, वैक्रियिक, आहारक ये तीन शरीर जैनोंके यहां माने ही गये हैं। अतः साम्भोगिक शरीरका हम निषेध नहीं करते हैं । किन्तु वह माने गये पांच शरीरोंसे कोई न्यारा शरीर नहीं है। 1 नवौदारिकाद्यानि भिन्नानि पार्थिवादिशरीराणि संति ततोन्यत्रोपसंख्यातव्यानीति केचित् तान् प्रत्याह । यहां वैशेषिक अपने मतका अवधारण करते हैं कि जो औदारिक शरीरसे भिन्न हो रहे पृथिवीनिर्मित शरीर या जलनिर्मित शरीर अथवा तैजस और वायवीय शरीर हैं उनको उस औदारिकसे न्यारा 30
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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