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________________ तत्त्वार्यचिन्तामणिः २३१ न्यारे ही घोडे, भोजन, वस्त्र, स्त्री, धन, आदिक भोग्य पदार्थ गढ लेने चाहिये । इसपर बौद्ध यदि यों. कहें कि स्वप्नका ज्ञान करनेवाले जीवोंके पूर्वकालसे लगी आ रही भोग्यपदार्थोंकी वासना करके भोग्यपदार्थोंका प्रतिभास हो जाता है । मिथ्यावासना द्वारा असंख्य झूठे पदार्थोंका शोकी, मदोन्मत्त, मूर्च्छित, जीवोंके ज्ञान हो रहा देखा जाता है। यों कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि तब तो शरीरकी भी केवल वासना से ही शरीरका आभास हो जावो, वास्तवमे वहां कोई न्यारा शरीर नहीं है, जैसे कि भोग्य पदार्थ नदी, उपवन, पर्वत, मृतपिता, मित्र, आदिक कोई न्यारे वहां नहीं हैं। विचारा जाय तो किसी भयंकर पदार्थ के स्वप्न में दीख जानेपर इस स्थूलशरीर में ही कम्पया हृदय धडकन हो रही प्रतीत होती है, युवा पुरुषों को विशेष स्वप्न आनेपर इस स्थूल शरीरमें ही विकार हुआ करते हैं । यों मूर्च्छित, उन्मत्त, भ्रान्त, दशाओंमें अनेक प्रकारके विपरीत ज्ञान होते हैं । उनके लिये कहांतक झूठे मूठे अप्रमाणिक शरीरोंकी कल्पना करोगे ? यथैव हि स्वप्नदशायां भोगोपलब्धिः स्वप्नांतिकं शरीरमंतरेण न घटत इति मन्यते तथा भोग्यानर्थानंतरेणापि सा न सुघटेति भवद्भिर्मननीयं, जाग्रदशायां शरीर इव भोग्येष्वपि सत्सु भोगोपलब्धेः सिद्धत्वात् । यदि पुनर्भाग्यवासनामात्रात्स्वप्नदर्शिनां भोग्याभास इति भवतां मतिस्तदा शरीरवासनापात्राच्छरीराभासनमिति किं न मतं ? तथा सति स्वप्नप्रतिभासस्य मिथ्यात्वं सिध्येत्, अन्यथा शरीरप्रतीतेरपि भोग्यप्रतीतेः सुखादिभोगोपलब्धेः स्वप्नस्वप्रसंगात् । ततो न सौगतानां स्वप्नांतिकं शरीरं कल्पयितुं युक्तं नापि स्वाभाविकमित्याह । 1 कारण कि जिस ही प्रकार जीवका स्वप्न अवस्था में भोग, उपभोगोंकी उपलब्धि करना स्वप्नान्तिक शरीरको माने विना घटित नहीं होता है, यों बौद्ध मान रहे हैं । तिसी प्रकार भोग्य अर्थोके बिना भी वह भोगोंकी उपलब्धि भी भले प्रकार घटित नहीं हो पाती है । इस कारण आप बौद्ध र स्वप्नान्तिक भोग्य पदार्थ भी मानने चाहिये । क्योंकि जागृतदशामें जैसे शररिके होनेपर ही भोगोंकी उपलब्धि होती है । अतः स्वप्न में भी एक न्यारा शरीर मानना पडता है । उसी प्रकार जाग्रत दशामें भोग्य पदार्थों के होनेपर ही भोगकी उपलब्धि होती है। इससे सिद्ध हैं कि स्वप्न में विलक्षण प्रकार के भोग्य पदार्थ भी हैं। यदि बौद्धों का यह मन्तव्य होय कि स्वप्नदर्शी पुरुषोंको पूर्वकालीन भोग्य पदार्थोंकी आत्मामें जम गयीं केवल वासनाओंसे ही भोग्योंका आभास हो जाता है, आचार्य कहते हैं कि यों आपका विचार होय तब तो शरीरकी केवल ( कोरी ) वासनासे स्वप्न में शरीरका प्रतिभास हो जाता है, यह क्यों नहीं मान लिया जावें ? तैसा होनेपर ही स्वप्न प्रतिभासको मिथ्यापन सिद्ध हो सकेगा । अन्यथा यानी स्वप्नान्तिक भोग यदि मान लिये जायेंगे तो स्वप्न सच्चा बन बैठेगा अथवा शरीरकी प्रतीति हों जानेसे भोंग्यों की प्रतीति हो रही है, इस कारण के जाग्रत दशाके सुख आदि भोगोंकी उपलब्धिको स्वप्नपनेका प्रसङ्ग हो जायेगा । तिस कारण बौद्धोंको निराले स्वप्नान्तिक शरीरकी
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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