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________________ तत्त्वार्यलोकवार्तिक हैं । कार्मणशरीरकी प्रणालिका ( द्वार ) करके उन शरीरोंकी निष्पत्ति हो जाती है । अतः निमित्त नैमित्तिक भेदसे उन शरीरोंका पृथग्भाव है । और एक बात है कि अपने अपने उपादान कारणोंके भेदसे उन शरीरोंका भेद प्रसिद्ध हो रहा है। अर्थात् --उपादानकारण आहार वर्गणासे जीवका औदारिक, वक्रियिक और आहारक शरीर बन जाता है । तेजोवर्गणाका विवर्त तैजस शरीर है और कार्मणवर्गणाका उपादेय कार्मण शरीर है। पृथगुपलंभप्रसंग इति चेन्न, विश्रसोपचयेन स्थानात् क्लिन्नगुडरेणुश्लेषवदौदारिकादीनां कार्मणनिमित्तत्त्वे कार्मणं किं निमित्तमिति वाच्यं ? न तावन्निनिमित्तं तदनिर्मोक्षपसंगादभावप्रसंगाद्वा शरीरांतरनिमित्तत्वे तु तस्याप्यन्यशरीरनिमित्तत्वेऽनवस्थापत्तिरिति चेन, तस्यैव निमित्तभावात् । पूर्व हि कार्मणं कार्मणस्य निमित्तं तदपि तदुत्तरस्येति निमित्तनैमित्तिकभावोऽविरुध्यते, न चैवमनवस्थापत्तिः कार्यकारणभावेन तत्संतानस्यानादेरविरोधात् । यहां कोई आक्षेप करता है कि न्यारे न्यारे उपादान कारणोंसे जब पांच शरीर भिन्न भिन्न निष्पन्न ( तैयार ) हुये हैं तो उनके पृथक् पृथक् उपलम्भ हो जानेका प्रसंग आवेगा। किन्तु यथासम्भव पाये जानेवाले औदारिक, तैजस, कार्मण, या वैक्रियिक, तैजस, कार्मण, आदि शरीर पृथक् पृथक् तो नहीं दीख रहे हैं । आचार्य कहते हैं कि यह कटाक्ष नहीं करना । क्योंकि विस्रसोपचय करके उन शरीरोंका अवस्थान हो रहा है । जैसे कि स्वाभाविक परिणामसे गीले गुडपर छोटी छोटी धूल चुपटकर अवस्थित हो जाती है, उसी प्रकार कार्मण शरीरमें औदारिक आदिकोंका विस्रसोपचयरूपसे अवस्थान हो रहा है, अतः उनमें नानापन सिद्ध है। भावार्थ-जैसे गीले गुडमें धूल चुपट जाती है, उसी प्रकार प्रवाहरूपसे अनादिकालीन संचित हो रहे कार्मण शरीरमें नोकर्म शरीर लग बैठते हैं । पुनरपि कर्म, नोकर्म, शरीरोंके ऊपर “ जीवादोणन्तगुणा पडिपरमाणुम्हि विस्ससो वचया, जीवेण य समवेदा एक्केक्कं पडिसमाणा हु" इस गाथानुसार विस्रसोपचय लदा रहता है। पुनः किसीका आक्षेप है कि औदारिक, वैक्रियिक, आदि शरीरोंका निमित्तकारण यदि कार्मण शरीर माना जायगा तो फिर कार्मण शरीरका निमित्त कारण क्या होगा ? यह कहो। वह कार्मण विचारा निमित्तकारणसे रहित तो नहीं है । अन्यथा यानी कार्मणको निमित्तरहित माननेपर उसकी मोक्ष नहीं होनेका प्रसंग आवेगा । जिस सत् पदार्थका हेतु नहीं है, उस नित्य पदार्थका कभी विनाश नहीं हो सकता है । ऐसी दशामें किसी भी जीवकी मोक्ष नहीं हो सकेगी। सदा कर्म चिपके रहेंगे। तथा एक बार कर्मपिण्डसे मुक्ति पा जानेपर भी पुनः कर्म चिपट जायंगे । उनका कोई निमित्तकारण मिथ्यादर्शनादि तो अपेक्षणीय है ही नहीं। क्योंकि आप उन कर्मोको निनिमित्त मान चुके हैं अथवा कार्मण शरीरका निमित्त यदि कोई हेतु नहीं माना जायगा तो खरविषाणके समान उस कार्मण शरीरके अभावका प्रसंग होगा। इन दो दोषोंको टालनेके लिये कार्मणशरीरका निमित्त यदि दूसरा शरीर माना जायगा तब तो उस
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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