SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१४ तत्त्वार्थ लोकवार्तिके है। हां, उत्तरवर्त्ती वैक्रियिक आदिकोंका क्रमशः पाठ पढना तो क्रम क्रमसे सूक्ष्मताकी प्रतिपत्तिके लिये है, जो कि अग्रिम सूत्र द्वारा उत्तरोत्तर शरीरोंको सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम अतिसूक्ष्म, रूपसे कहा ही जायगा । कार्मणग्रहणमादौ युक्तमौदारिकादिशरीराणां तत्कार्यत्वादिति चेन्न, तस्यात्यंतपरोक्षत्वात् । औदारिकमपि परोक्षमिति चेन्न, तस्य केषांचित्प्रत्यक्षत्वात् । तथाहि किसीकी शंका है कि सभी शरीरोंका अधिष्ठाता, निमित्त, जनक, आदि होनेसे पिता के समान प्रधान कार्मणशरीरका आदिमें ग्रहण करना समुचित्त है। क्योंकि औदारिक आदिक पांचों शरीर उसके कार्य हैं। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि वह कार्मणशरीर अत्यन्त परोक्ष है । जैसे प्रत्यक्ष योग्य घट आदि कार्यों करके अतीन्द्रिय सूक्ष्म परमाणुओं का अनुमान कर लिया जाता है, उसी प्रकार औदारिक आदि अथवा सुख, दुःख, आदिकी विचित्रताओंकी उपलब्धिसे अतीन्द्रिय कर्म शरीरका अनुमान कर लिया जाता है । अतः ऐसे सूक्ष्म या अतीन्द्रिय पदार्थकी सर्व साधारण प्राणियों में प्रधानता नहीं मानी जाती है । अतः अधिक मोटा औदारिक ही सबको प्रधान, भाग्यशाली, प्रतीत हो रहा है । कोई पुनः शंका करता है कि साधारण जीवों या सूक्ष्म जीवों अथवा छोटे छोटे द्वीन्द्रिय आदिकों के औदारिक शरीर भी तो परोक्ष हैं । इनमें बहुतसे बहिरिन्द्रियों द्वारा नहीं देखे जा सकते हैं ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि उस औदारिकका किन्हीं किन्हीं जीवोंको तो प्रत्यक्ष हो ही जाता है, अथवा किन्हीं किन्हीं बहुतसे तिर्यचों या मनुष्योंके उस औदारिक शरीरका प्रत्यक्ष हो ही जाता है । इसी बात को प्रमाण द्वारा साधते हुये ग्रन्थकार यों प्रसिद्ध कर दिखाते हैं । 1 1 सिद्धमौदारिकं तिर्यङ्मानुषाणामनेकधा । शरीरं तत्र तन्नामकर्मवैचित्र्यतो बृहत् ॥ २ ॥ उन शरीरोंमें सृष्टा नामकर्मकी विचित्रतासे अनेक प्रकारका और मोटा हो रहा वह ि और मनुष्यों का औदारिक शरीर सिद्ध ही है । बृहद्धि शरीरमादारिकं मनुष्याणां तिरथां च प्रत्यक्षतः सिद्धं तेषु शरीरेषु मध्ये । तच्चानेकधा तन्नामकर्मणोनेकविधत्वात् । " कारण कि उन पांच शरीरोंके मध्य में प्रथम प्रोक्त मनुष्य और तिर्यंचोंका मोटा औदारिक शरीर तो प्रत्यक्षप्रमाणसे सिद्ध ही है और वह औदारिक शरीर वृक्ष, वेल, पशु, पक्षी, मनुष्य, कीट, पतंगा, मिट्टी, जल, आदि ढंगका अनेक प्रकार है । क्योंकि उसके कारण हो रहे नामकर्मके अनेक प्रकार हैं । कारणोंकी विचित्रतासे विचित्र कार्य उपज जाते हैं । शेषाणि कुतः सिद्धानीत्याह ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy