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________________ तत्त्वार्य लोकार्तिके वनस्पतियां वर्षाकालमें सूख जाती हैं, जब कि अन्य असंस. बनस्पतियां हरी भरी रहती हैं । अतः काल साधारण कारण भले ही होय किन्तु असाधारण कारण काल नहीं है। यदि कोई यों कहे कि पृथिवी, जल, तेज, इन भूतोंकी विचित्रतासे सुख आदि कार्योंकी विचित्रता बन जाती है, जैसा जहां भूतद्रव्य होगा वैसा वहां सुख दुःख, ज्ञान, आदि हो जावेगा । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना। झ्योंकि भूतके कार्य सुख, दुःख, आदि हैं। इसका पूर्वप्रकरणोंमें विषेध किया जा चुका है । अतः अन्वय, व्यभिचार, व्यतिरेक व्यभिचार, दोष आजानेसे काल, भूत, दुग्ध, व्यापार, गुरु, स्थान, औषधि, आदि पदार्थ तो सुखादि कार्योंके विचित्रपनका अव्यर्थ संपादन नहीं कर पाते हैं। तिस कारण परिशेष न्यायसे कर्मोकी विचित्रता ही को सुखादि कार्योका विचित्रपना ज्ञापित कराता है। उस कर्मकी विचित्रताके विना दृष्टकारणोंकी पूर्णता होनेपर भी कभी, कहीं, उन कार्योंकी उत्पत्ति नहीं देखी जा रही है । वही कर्मोकी विचित्रता यहां प्रकरणमें इस.जन्म या योनियोंका निमित्त कारण समझी जाती है पूर्व प्रकरणोंमें पौद्गलिक कर्मोकी विलक्षण शक्तियोंका हम निरूपण कर चुके हैं | यहां अधिक विस्तारलिखनेकी अपेक्षा इतनेसे ही पूरा पडो। अधिक प्रकरण बढानेसे कुछ विशेष प्रयोजन नहीं साधता है । केषां पुनर्गर्भजन्मेत्याह । ___ संसावर्ती कौन कौन प्राणियोंके गर्भ नामका जन्म होता है ? अथवा. क्या सम्पूर्ण प्राणियों के नियम विना चाहे कोई भी जन्म हो जाता है ? बताओ, इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री उम्मस्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको उतारते हैं । जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः ॥ ३३ ॥ ___ जरायुमें उत्पन्न हुये मनुष्य, बछरा, पडरा, आदि प्राणियोंके और अण्डेसे उत्पन्न हुये तोता' मैना, कबूतर, आदि जीवोंके तथा उदरसे निकलते ही उछलने दौडनेवाले हिरण आदि पोत तिर्यंचोंके गर्भ नामक जन्म होता है। जालवत्माणिपरिवरणं जरायुः जरायौ जाता जरायुजाः, शुक्रशोणितपरिवरणमुपाचकाठिन्यं नखत्वक्सदृशं परिमंडलमंडं, अंडे. जाता अंडजाः, पूर्णावयवः परिस्पंदादिसामर्योप्रलक्षितः पोतः । पोतज इत्ययुक्तमर्थभेदाभावात् । आत्मा पोतज इति चेन्न, तस्यापि पोतपरिमाणादात्मनः पोतत्वात् । जरायुजाश्च अंडजाश्च पोताच जरायुजांडजपोता इति सिद्धं । ___प्राणियोंके ऊपर जालके समान चारों ओरसे ढकनेवाला झिल्ली स्वरूप पदार्थ जरायु कहा जाता है, जो कि फैले हुये मांस और श्रेणितको पत्तर है । जरायुमें जो उपजते हैं वे जीव जरायुज हैं। पुल्लिंग तिर्यचका वीर्य और स्त्रीलिंग. तिथंचका रक्त अपनी अवस्थाको बदलकर काठिन्यको ग्रहण करता हुआ नखने व्रकला सरीखा कुछ लम्बाई लेता हुआ गोल पदार्थ अण्ड कहा जाता है ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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