________________
१८०
तत्रार्थ श्लोकवार्तिके
1
परिमाणानधिकरणत्वे सति नित्यद्रव्यत्वात् " दिया है । इत्यादि इस प्रकारके अन्य भी व्यापकत्व - साधकहेतुओं का इस उक्त कथनसे प्रत्याख्यान कर दिया गया है । जब कि निजशरीर में ही मध्यम परिमाणको धार रहे आत्माका बालिका, पशु, पक्षियोंतकको प्रत्यक्ष प्रमाणद्वारा सम्वेदन हो रहा है, तो नित्यत्वे सति अमूर्तत्व हेतुके समान इन हेतुओं में भी प्रत्यक्षबाधित विषयका साधकपना अन्तररहित है । अतः ये सब हेतुबाधित हेत्वाभास हैं । दूसरा दोष यह भी कि नित्य होते सन्ते अमूर्तपना यों विशेषण विशेष्यदलवाला यह हेतु तो ईश्वरज्ञान करके व्यभिचार दोषवान् है । देखिये, अभीष्ट - साध्यसे शून्य हो रहे, अव्यापक भी उस ईश्वरज्ञानको नित्यपना और अमूर्तपना सिद्ध है। पांच मूर्त द्रव्योंके अतिरिक्त सभी द्रव्य या गुण, कर्म, आदिक पदार्थ तुम्हारे मतमें अमूर्त माने गये हैं । अमूर्तद्रव्यत्व लगानेसे सम्भवतः तुम्हारी कुछ रक्षा हो सकती थी । किन्तु इसका विचार पहिले कर दिया गया है । ईश्वरका ज्ञान नित्य तो है ही । यदि नहीं मानना चाहते हो तो इस अनुमानद्वारा मानना ही पडेगा कि ईश्वरका ज्ञान ( पक्ष ) नित्य है ( साध्य ), अनादिकालसे अनन्तकाल क प्रवर्त्त रहा होनेसे ( हेतु ) देवोंका मार्ग यानीं आकाश के समान ( अन्वय दृष्टान्त ) । यदि उस ईश्वर ज्ञानको सादि, सान्त, माना जायगा तो हमारा हेतु अवश्य असिद्ध हेत्वाभास हो जायगा । किन्तु साथमें तुम्हारे अभीष्ट देवता महेश्वरको सम्पूर्ण अर्थोकी ज्ञप्ति करनेका विरोध हो जायगा । पदार्थों के अधीन होकर दूसरे दूसरे क्षणमें उपजने, नशनेवाले ज्ञान द्वारा लाखों या असंख्याते वर्षोंमें भी ईश्वर सम्पूर्ण पदार्थों को जान नहीं सकता है । अतः आत्मा के व्यापकत्वको साधनेवाला तुम्हारा हेतु व्यभिचारी है ।
योप्याह, अनित्यमीश्वरज्ञानमुत्पत्तिमत्त्वात् कलशादिवत् उत्पत्तिमत्तदात्मांतःकरणसंयोगापेक्षत्वादस्मदादिज्ञानवत् । योगजधर्मानुग्रहीतेन हि मनसेश्वरस्य संयोगे सति सर्वार्थे ज्ञानमुत्पाद्यते । न चैवं, तदादिपर्यंतवत् संतानरूपतयानादिपर्यंतत्वोपपत्तेः । योगसंतानो हि महेशस्यानादिपर्यंतः सदा रागादिमलैरस्पृष्टत्वात् । अनादिशुद्धयधिष्ठानत्वात्ततश्च धर्मविशेषः तदनुग्रहश्च मनसः तेन संयोगश्चेति तन्निमित्तं सर्वार्थज्ञानमनादिपर्यंत मुपपद्यते प्रमाणफलत्वाश्च्चैश्वरज्ञानमनित्यं नित्यत्वे तस्य प्रमाणफलत्वविरोधात् विशेषगुणत्वाच्च तदनित्यं सुखादिवदिति, तस्यापि गृहीतग्राही श्वरज्ञानमायातं । ततश्च न प्रमाणं स्मरणादिवत् गृहीतग्राहिणोपि तस्य प्रमाणत्वे प्रमाणसंप्लववादिनामनुभूतार्थे स्मरणादेः प्रमाणत्वानुषंगः केन निवार्येत ।
वैशेषिकके मतको पुष्ट कर रहा जो भी कोई यों कह रहा है कि ईश्वरका ज्ञान ( पक्ष ) अनित्य है (साध्यदल) उत्पत्तिवाला होनेसे ( हेतु ) कलश, कपडा, आदिके समान, (अन्वयदृष्टान्त ) । पुनः हेतुके स्वरूपासिद्ध हो जानेकी कोई शंका न करे । अतः वैशेषिक इस हेतुको साध्यकोटिपर लाते हैं कि वह ईश्वरज्ञान ( पक्ष ) उत्पत्तिवाला है ( साध्य ) आत्मा और मनके संयोग की अपेक्षा