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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
प्रमाणनयैरधिगम इत्युक्तं तत्र जीवस्य स्वतत्त्वमिह सामान्य संग्रहादवांतरोक्तादधिगतं निवेदितं तद्भेदाः परौपशमिकादयो व्यवहारनयात् यज्जीवस्य स्वतत्त्वं तदौपशमिकादिभेदरूपमिति । पुनरप्यौपशमिकादिसामान्यं तत्संग्रहात् तद्भेदो व्यवहारात् । यदीपशमिकसामान्य तविभेदं, यत्क्षायिकसामान्यं तन्नवभेदः यन्मिश्रसामान्यं तदष्टादशभेदं, यदौदयिकसामान्य तदेकविंशतिभेदं, यत्पारिणामिकं सामान्यं तत्रिभेदं इति । पुनरपि सम्यक्त्वादिसामान्य तत्संग्रहात् तद्भेदो व्यवहारादिति संग्रहव्यवहारनिरूपणपरंपरा प्रागृजुसूत्रादवगंतव्या । सामान्यविशेषात्मकं तु स्वतत्त्वं सकलं प्रधानभावात् प्रमाणतोधिगतं निवेदितं सूत्रकारेण । एवं जीवस्य लक्षणं भेद इन्द्रियं मनस्तद्विषयः तत्स्वामी च सामान्यतः संग्रहाद्विशेषतो व्यवहारात् प्रधानभावाप्तिसामान्यविशेषतः प्रमाणादधिगम्यते। . प्रमाण और नयोंकरके जीवादि पदार्थोका अधिगम होता है । यह पहिले अध्यायमें कहा जा चुका है। उन सात तत्त्वोंमेंसे जीवतत्त्वका निजतत्त्व तो यहां द्वितीय अध्यायके पहिले सूत्रमें जो सामान्य कहा गया है, वह नयके अवान्तर व्याप्य भेदोंमें कहे गये संग्रहनयसे जान लिया गया कहा जा चुका है । हां, जीवके स्वतत्त्वके भेद हो रहे दूसरे औपशमिक, क्षायिक, आदि भाव तो व्यवहार नयसे यों गिनाये गये हैं कि जीवके जो स्वतत्त्व हैं वे औपशमिक, क्षायिक, आदि भेदस्वरूप हैं । फिर भी उस औपशमिक आदि सामान्यको संग्रहनयसे जानकर उन औपशमिक आदिके भेदोंका अधिगम व्यवहारनयसे यों जान लिया कह दिया है कि जो औपशमिक सामान्य है, वह दो भेदवाला तत्त्व है, और जो क्षायिक सामान्य स्वतत्त्व है, वह नौ भेदोंको धार रहा है, तथा जो जीवका निजतत्त्व मिश्र सामान्य है, वह अठारह भेदोंमें विभक्त है, एवं जो संग्रहनयसे सामान्य अनुसार एक ही औदयिक निजतत्त्व है, वह व्यवहारनयसे इकईस भेदोमें बटा हुआ है। जो पारिणामिक सामान्य भाव है, वह व्यवहारनयसे वह तीन भेदवान् है, इस प्रकार संग्रह और व्यवहारनयसे स्वतत्त्वके भेद प्रभेदोंका निरूपण आदिके सात सूत्रोंमे किया गया है, फिर भी वहीं सम्यक्त्व आदि सामान्यको जो संग्रहसे जाना गया है, उसके भेद व्यवहारसे जान लिये जाते हैं। व्यवहारनयसे जाने चुकेके ऋजुसूत्रनयसे पुनः प्रभेद जान लिये जाते हैं । इस ढंगसे संग्रह और व्यवहारद्वारा निरूपण करनेकी परम्परा सूक्ष्म ऋजुसूत्रनयसे पहिलेतक समझ लेनी चाहिये । अर्थात्-जबतक एक समयवर्ती सूक्ष्म एक ही पर्यायतक नहीं पहुंचे, तबतक पहिलेके भेद प्रभेदोंको संग्रह और व्यवहारमें ही खतियाना चाहिये, जैसे कि प्रासादके दृढ भाण्डागारमें बडा सन्दूक है, वहां बडी तिजोरीमें डिब्बा रक्खा है । डिब्बेमें डिविआ और डिबिआमें वस्त्रवेष्टित हो रहे रत्नभूषण सुरक्षित हैं। उसी प्रकार पहिले व्यवहारसे जाने गयेको संग्रहका विषय बनाकर पुनः उसके व्याप्य विषयको व्यवहारसे जानो, फिर भी यदि विषयोंके परतोंमें छोटे छोटे अनेक परत दीखें तो उस व्यवहारमयके विषयको