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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः १५५ इस प्रकार " स्पर्शरसगंधवर्णशद्वास्तदर्थाः, श्रुतमनिंद्रियस्य " इन दोनों सूत्रों करके इन्द्रिय और मनके विषय हो रहे अर्थोका निरूपण किया गया है, जो कि उस अर्थसे विज्ञानका जन्म स्वीकार करनेवाले बौद्धमतका खण्डन करनेके लिये है और ज्ञानके निरालम्बनपनका निराकरण करने के लिये है। भावार्थ-बौद्ध पण्डित विषयजन्य ज्ञानको प्रमाण मानते हैं । घटका ज्ञान घटसे जन्य है । पटका ज्ञान पटसे जन्य है। किन्तु उनका यह मन्तव्य निर्दोष नहीं है। इन्द्रिय और अदृष्टसे व्यभिचार हो जाता है। देखो, इन्द्रियोंसे या कौके क्षयोपशमसे ज्ञान जन्य है, किन्तु इनको विषय नहीं करता है। स्पर्शका ज्ञान स्पर्शन इन्द्रियसे जन्य है, फिर भी वह अतींद्रिय हो रही स्पर्शन इन्द्रियको नहीं जानता हुआ स्पर्शको ही जान रहा है। अतः इन्द्रियोंके विषयका निरूपण करनेसे ज्ञानकी अर्थजन्यताका निराकरण हो जाता है । तथा ज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध सम्पूर्ण ज्ञानोंको निरालम्बन स्वीकार करते हैं । घटज्ञानका विषय कोई बहिर्भूत कम्बुग्रीवा वाला जड पदार्थ नहीं है, सभी ज्ञान निर्विषय हैं। यों इन बौद्धोंका प्रत्याख्यान करनेके लिये इन्द्रियजन्य ज्ञानोंका स्वतंत्र विषय निरूपण किया गया है । भ्रान्त ज्ञानोंको छोडकर सभी सम्यग्ज्ञान सविषय हैं । यदि विषयको ज्ञानका कारण माना जायगा तो भूत, भविष्य, पदाथीको सर्वज्ञ नहीं जान सकेंगे । केवल अव्यवहित पूर्वसमयवर्ती पदार्थोका ही ज्ञान उपज सकेगा। एवं ज्ञानोंके विषय नहीं माननेपर सम्पूर्ण जीवोंके अनुभव सिद्ध हो रहे लौकिक, पारलौकिक, कर्तव्य अलीक हो जायेंगे। केषां पुनः पाणिनां किमिंद्रियमित्याह । कोई जिज्ञासु प्रश्न करता है कि कौन कौनसे प्राणियोंके कौन इन्द्रिय है ! ऐसी आकांक्षा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र द्वारा उत्तर वचन कहते हैं । वनस्पत्यंतानामेकम् ॥ २२॥ अन्त शब्दके अवयव, धर्म, अवसान, समीप, पिछला, कई अर्थ हैं। उनमेंसे यहां अवसान अर्थ अभीष्ट है । एक शद्बके भी असहाय, भिन्न, केवल; अन्य, संख्या, विशेष, प्रधान, प्रथम, कश्चित् , ये अनेक अर्थ हैं । किन्तु यहां प्रकरण अनुसार एक शद्बका प्रथम अर्थ लिया गया है । पृथिवीको आदि लेकर वनस्पतिपर्यंत जीवोंके पहिली स्पर्शन इन्द्रिय है । वनस्पतिरंतोवसानं येषां ते वनस्पत्यंताः सामर्थ्यात्पृथिव्यादय इति गम्यंते तेषामेकं प्रथममिंद्रियं स्पर्शनमिति प्रतिपत्तव्यम् । जिन जीवों के वनस्पति अन्त अर्थात्-अवसानमें है वे जीव " वनस्पति अन्त” कहे जाते है। अन्त शब्द आदिकी अपेक्षा रखता है। अतः सामर्थ्यसे पृथ्वीको आदि लेकर वनस्पति पर्यन्त जीव यों जान लिये जाते हैं । उन पांच कायके जीवोंके एक पहिली स्पर्शन इन्द्रिय है, यह समझ
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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