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श्रीविद्यानंद - स्वामिविरचितः
तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकारः
तत्त्वार्थचिंतामणिटीका सहितः
( पञ्चमखंडः )
अथ द्वितीयोऽध्यायः ।
नानावस्तुस्वभावभ्रमकलितवपुः स्यात्स्वतत्त्वाप्यवीचिरस्माना अप्यगाधे गणधरमुनयः स्त्रान्तिं यद्बोधतोये । सिद्धार्थापत्यवीरोद्भव प्रकलजगत्तारि सामर्थ्यजुष्टब्राह्मीगंगा पुमीताद्दुरितनिरसनी चिद्वहा भव्यहंसान् ॥
ra श्री विद्यानन्द आचार्य तत्त्वार्थसूत्र संबंधी द्वितीय अध्याय के श्लोक निर्मित बार्त्तिकों द्वारा अलंकार करनेका प्रारम्भ करते हैं ।
सम्यदृग्गोचरो जीवस्तस्योपशमिकादयः ।
स्वं तत्त्वं पंच भावाः स्युः सप्तसूत्र्या निरूपिताः ॥ १ ॥
सम्यग्दर्शन का विषयभूत होरहा जीव पदार्थ है, उसके औपशमिक, क्षायिक आदिक पांच
भावस्य आत्मक तत्व हो रहे हैं, वे इस द्वितीय अध्याय के प्रथमवर्त्ती सात सूत्रोंके समुदाय करके श्री उमास्वामी महाराज द्वारा पहिले निरूपण किये जाचुके हैं । इस कथन करके श्री विद्यामन्दस्वामीने are अध्यायके प्रकरणों की द्वितीय अध्याय सम्बन्धी प्रकरणों के साथ हो रही संगति को प्रदर्शित किया है अतः सूत्रकारके उपर असंगत प्रलाप दोष लग जाने का खटका नहीं रहा ।