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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः १.०५ देनेपर तो संसारी और मुक्त जीवोंका बहुपना रक्षित हो जाता है। ऐसी दशामें पांच स्वरवाले वर्णों का सूत्र न बनाकर श्री उमास्वामी महाराजने सात स्वरोंवाले वर्णों का बडा सूत्र क्यों बनाया? सूत्रकारको न्यून से न्यून शब्दों के कथन का सर्वदा विचार रखना चाहिये । आचार्य कहते हैं कि " संसारिणश्च मुक्ताश्व इति संसारमुक्ताः " अनेक संसारी और अनेक मुक्त जितने भी अनन्तानन्त जीव हैं वे सब (( " 1 संसारिमुक्ताः ” कड़े जाते हैं । इस प्रकार यदि द्वन्द्वसमासका निर्देश किया जायगा तो भी एक निराले अर्थकी प्रतिपत्ति हो जानेपर प्रसंग बन बैठेगा । संसारी ही मुक्त हैं यों कर्मधारय समास द्वारा एक विलक्षण अर्थ ही निकल सकता था जो कि सिद्धान्तमुद्रासे अनिष्ट है । संसारी ही जीव तो उसी समय मुक्त नहीं हैं । विद्यार्थी मण्डलको गुरुसंघ कहना 1 या पशुसमूहको नरेशमण्डल कहना जैसे अलीक है, उसी प्रकार संसारी जीवों को ही मुक्तजीव कहना अनिष्ट पडेगा । और तिस प्रकार दौनों को एक मान लेने पर शुद्धाद्वैत वादियों का संसारी और मुक्त जीवोंके एकपनका पक्ष पा बैठेगा 1 किन्तु वह एकत्वका प्रवाद तो दृष्ट और इष्ट प्रमाणोंसे बाधा प्राप्त हो रहा साधा जा चुका है। फिर भी उस बाधाको सुन लीजियेगा । बोडा, गाय, स्त्री, आत्मामें मुक्तस्वभात्र के आश्रमरहितपने का स्वसम्बेदन दरको स्वयं स्वस्थपने या सेठपने का अनुभव नहीं है । यह प्रत्यक्ष प्रमाणसे बाधा हुई । तथा संसारी जीवों को ही यदि मुक्त मान लिया जायगा तो मोक्षके उपाय हो रहे श्रवण, मनन, तत्त्वज्ञान, संन्यास आदिके स्वीकार करनेका विरोध हो जायगा । पाठशाला में प्रवेश करते ही विद्यार्थी यदि महान् पण्डित हो जाता है तो परदेशनिवास, कुटुम्बी जनों का परित्याग, घोषण, अनुमनन, जागरण, भोगोपभोगमें उदासीनता आदि साधनों का मिलाना भला कौन चाहेगा ? यह इष्टविरोध हुआ । दूसरी बात यह है कि संसारी और मुक्तोंके एकपन के सिद्धान्तमें मुक्त जीवों का भी संसारी आत्मकपना छूट नहीं सकता है, जैसे विद्यार्थी और पण्डित के सर्वथा एक हो जानेपर महान् पण्डित का भी अ आ इ ई पढना या " अ इ उ ण् 27.46 अचिकोयण् ” की रटन्त लगानेसे पिण्ड नहीं छूट सकता है । नमस्करणीय आचार्य महाराज महान् उपकारी पुरुष हैं। शिष्यों को विप्रलम्भ न होकर सुलभतासे सुखपूर्वक स्पष्ट प्रतिपत्ति हो जाय इसलिये उन्होंने समासवृत्तिको नहीं कर " संसारिणो मुक्ताश्च ” ऐसा असन्देहार्थ सूत्र कह दिया है । कण्टकाकीर्ण और हिंसक प्राणियुक्त मार्गको एक दिन में पूरा कर लेनेकी अपेक्षा सुखपूर्वक निरुपद्रव मार्ग द्वारा दो दिनमें इष्ट स्थानपर पहुंचना बहुत अच्छा है । निरापद पद्धतिका अन्वेषण करो । I पुरुष, आदिक संसारी प्रत्यक्ष हो रहा है, जीवोंको अपनी अपनी जैसे किसी रोगी या संसारिमुक्तमिति द्वंद्वनिर्देशेपि संसार्येव मुक्तं जीवतत्त्वमित्यनिष्टार्थप्रतीतिप्रसंगात् तदेकत्वप्रवाद एव स्यात्, स च दृष्टेष्टबाधित इत्युक्तं । " संसारी और मुक्त इन दो पदों का सहार द्वन्द्व कर देने से " संसारिमुक्तं इस प्रकार इन्द्रसमास द्वारा कथन करनेपर भी संसारी जीव ही मुक्त जीवस्वरूप तत्त्व है, इस प्रकार नहीं अभीष्ट हो रहे 14
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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