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( ४ ) जितने भी साधु हुए वे सभी तपोनिधि, चारित्रशील और आगमों के वेत्ता, ज्ञानाभ्यासी - देशकालके ज्ञाता सिद्ध हुए हैं।
आचार्यश्रीने अपनी यमसल्लेखना के समय अपने उत्तराधिकार पट्टको ज्ञानवृद्ध वयोवृद्ध एवं अनुभववृद्ध तपस्वी श्री परमपूज्य आचार्य वीरसागर महाराजको सौंप दिया। परन्तु गुरुचरणों के स्वर्ग सिधारने के बाद आचार्य वीरसागरजीका भी कुछ ही समय में स्वर्गारोहण हुआ । उस पट्टमें अधिकारी शिष्य परमशांत साधु ज्ञानवृद्ध, तपोवृद्ध श्री आचार्य शिवसागरजी महाराज आसीन हुए। परमपूज्य आचार्यश्री भीं अपने गुरुजनोंके समान ही ध्यानाध्ययनमें रत, विषय कषायादिसे दूर, स्वपर हित में अनुग्रह करनेवाले संत हैं। उनके द्वारा विशाल संघका संचालन यथापूर्व हो रहा है । आपके ही करकमलों में बडी नम्रताके साथ यह ग्रंथ समर्पित किया जा रहा है । अभीतक के सर्व भाग परमपूज्य संत आचार्यों के करकमलों में ही हम समर्पित करते हुए आ रहे हैं। यह आचार्यकी कृति है, आचार्य के करकमल में ही हम समर्पण करते हैं । इसके गुणदोषका निरीक्षण वे ही विद्वान् संत कर सकते हैं। स्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समप्यते ।
अपनी बात
श्री परमपूज्य प्रातःस्मरणीय विश्ववंद्य स्व. आचार्य कुंथूसागर महाराज उनके युग के प्रभावक मनोज्ञ साधु थे । उनकी लोकैषणा वृत्ति, सर्वजनप्रियता, मृदु व सरल परिणति, अगाध विद्वत्ता आदि गुणोंसे सभी क्षेत्रकी जनता प्रभावित थी। जैन समाज ही नहीं जैनेतर समाज में : भी उनके अगणित भक्त थे। उनकी सद्भावनाके अनुसार उनकी स्मृति में यह ग्रंथमाला चालू है | हमारा संकल्प है कि प्रति वर्ष हमारे सदस्यों को कमसे कम एक ग्रथ शध्यायार्थ प्रदान किया जावे। परन्तु संस्थाने इस महान ग्रंथ के प्रकाशनका कार्य हाथ में ले लिया है। अतः उसमें बोडासा व्यवधान होनेपर भी आगे हम प्रतिवर्ष एक एक ग्रंथ हमारे सदस्यों को भेट करने का निश्चित प्रयत्न करेंगे -
इस विषय में हम हमारे माननीय सदस्योंसे भी प्रार्थना करेंगे कि वे भी हमें सक्रिय सहयोग देवे । क्योंकि यह कार्य संपूर्णतः आर्थिक बलपर ही निर्भर है। यदि हमारे सदस्य अपनी संस्थाको पल्लवित करनेकी कामनासे आर्थिकबल प्रदान करनेकी कृपा करें तो संस्था आश्वासनके अनुसार आपकी सेवा निश्वित रूपसे कर सकेगी । अतः कमसे कम सदस्य संख्या बढाने के प्रति हाथ बटावे यह सादर निवेदन है । विनीत
सोलापूर
वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
ऑ. मंत्री आचार्य कुंथूसागर ग्रंथमाला कल्याण भवन, सोलापुर
भाद्रपद शु. ५ वीर सं. २४९०