________________
वार्थचिन्तामणिः
पत्तेः परोक्षतैवास्तु । तथा चैकत्र संविदि सिद्धे प्रत्यक्षेतरते प्रमाणेतरयोः प्रसारिके स्त इति न विरोधः ।
यदि स्वसंवेदन को ही वेद्याकार विवेकस्वरूप होनेके कारण उन दोनोंको एक कह दिया है, इसपर तो हमें कहना है कि इस प्रकार फिर प्रत्यक्षपन और परोक्षपनको भिन्न आश्रयमें वृत्तिपना भला कैसे सिद्ध हुआ ? बताओ । धर्मी और धर्मके न्यारे न्यारे भेदको विषय करनेपन की 1 कल्पनासे भिन्न आश्रयपना यदि कहोगे तो वास्तविक रूपसे उन ज्ञानरूप धर्मीके प्रत्यक्षपन और वेद्याकाररहिततारूप धर्मके परोक्षपनका आश्रय भिन्न भिन्न नहीं हुआ । इस प्रकार केवल सम्वेदनको प्रत्यक्षपना माननेपर उसके धर्म वैद्याकार पृथग्भावका भी प्रत्यक्षपना प्राप्त हो जाता है । ती प्रकार उस वेद्याकार विवेकको परोक्षपना प्राप्त होनेपर अद्वैत सम्वेदनको भी परोक्षपना भला क्यों नहीं प्राप्त हो जावेगा ? साझेके धर्म चाहे जिसके बांटमें आ सकते हैं । यदि उस सम्वेदन में पीछे विकल्पज्ञान द्वारा निश्चय उत्पन्न हो जाता है, अतः प्रत्यक्षपना है, इस प्रकार कहोगे तो वेद्याकार विवेकका निश्चय होना नहीं बनता है । इस कारण परोक्षपना भी हो जावो और इस प्रकार होनेपर एक ज्ञानमें प्रत्यक्षपना और परोक्षपना सिद्ध होते हुये छ्यालीसवीं वार्त्तिकके अनुसार दृष्टान्त बनकर एक मतिज्ञान या श्रुतज्ञान में भी प्रमाणपन और अप्रमाणपनको फैलानेवाले हो जाते हैं । इस प्रकार एक ज्ञानमें प्रमाणत्व और अप्रमाणत्वका कोई विरोध नहीं । एक दृष्टान्तसे असंख्य दाष्टर्शन्तोंमें साध्यकी सिद्धि हो जाती है ।
सर्वेषामपि विज्ञानं स्ववेद्यात्मनि वेदकम् ।
. नान्यवेद्यात्मनीति स्याद्विरुद्धाकारमंजसा ॥ ५० ॥
।
अन्योंको नहीं जान पाता है ।
सम्पूर्ण भी वादियोंके यहां कोई भी विज्ञान अपने और अपने द्वारा जानने योग्य विषय स्वरूपमें ज्ञान करनेवाला माना गया है। अन्य दूसरे वेद्यस्वरूप में जाननेवाला प्रकृत विज्ञान नहीं है । इस प्रकार वेदकपना और अवेदकपना होनेसे ज्ञानके विरुद्ध आकारोंको शीघ्र जान लेते हैं । अर्थात् - अद्वैतवादियोंका शुद्ध स्वसम्वेदन स्वको ही जानता है तथा द्वैतवादियों के यहां माना गया घटविज्ञान अपनेको और वेद्य विषयको जानता है । अन्य पट आदिको नहीं जान पाता है । सर्वज्ञका ज्ञान भी सत् पदार्थोंको जानता है । खरविषाण, वन्ध्या पुत्र आदि असत् पदार्थों या अनुमेयत्व, आगमगम्यत्व, आदि कल्पितधर्मो को नहीं जानता है । यही तो वेदकत्व और अवेदकत्व दो विरुद्ध ( वस्तुतः विरुद्ध नहीं ) धर्म एक ज्ञानमें ठहर जाते हैं । सर्ववादिनां ज्ञानं स्वविषयस्य स्वरूपमात्रस्योभयस्य वा परिच्छेदकं तदेव नान्यविषयस्येति सिद्धं विरुद्धाकारमन्यथा सर्ववेदनस्य निर्विषयत्वं सर्वविषयत्वं वा दुर्निवारं . स्वविषयस्याप्यन्यविषयवदपरिच्छेदात् स्वविषयवद्वान्यविषयावसायात् । स्वान्यविषय