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तत्त्वार्थ लोकवार्तिके
वादियोंने भी यह ज्ञान समीचीन है, इस प्रकार विवाद किये विना स्वयं इष्ट कर लिया है। कोई विरोध नहीं है । दर्पणके पार्श्व ( बगल) में चमकीली वस्तुके लगा देनेपर या जडी हुई मणिके नीचे कांच या चांदीका डंक लगा देनेपर जो चमक बढ़ जाती है, वह उस वास्तविक प्रतिबिम्बका ही कार्य है, कोई पूछता है कि इस प्रकार इष्ट करना अविरुद्ध कैसे है ! इसपर तो हम स्याद्वादियोंका यह कहना है कि एक पदार्थके अनेक निमित्त मिलनेपर नाना प्रतिबिम्बोंके पड जानेमें कोई सिद्धान्तसे विरोध नहीं आता है और तिस प्रकार प्रतीति भी हो रही हैं। आंखोंमें चमकीले लाल रंगको देखनेपर हानि होती है और हरे रंगको देखनेपर लाभ होता है यह सब दूरवर्ती पदार्थके
आंखोंमें पडे हुये प्रतिबिम्बका ही कार्य है दर्पणको देखते समय हमारा मुख पूर्वकी ओर है और प्रतिबिम्बका मुख तो पश्चिमकी ओर दीखरहा है । लहर लेरहे जलमें चन्द्रका प्रतिबिम्ब कंपता है और आकाशमें चन्द्रमा कंपता नहीं है, इस बातको बालक भी जानते हैं ।
खार्थे मतिश्रुतज्ञानं प्रमाणं देशतः स्थितं ।
अवध्यादि तु कात्स्न्ये न केवलं सर्ववस्तुषु ॥ ३९ ॥
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान अपने अपने विषय स्ख और अर्थमें एक देशसे अविसम्वाद रखते हैं। अतः प्रमाणस्वरूपसे प्रसिद्ध हैं । तया अवधि और मनःपर्यय तो अपने नियत विषयोंमें पूर्णपनेसे अविसम्वादी हैं। अतः प्रमाग हैं। हां, केवलज्ञान सम्पूर्ण वस्तुओंमें पूर्णरूपसे विशद है । अतः सबका सब प्रमाण है । इस प्रकार पांच ज्ञानोंमें तीन ढंगसे प्रमाणपना प्रसिद्ध हो रहा है । जौहरी, वैद्य, ज्योतिषी, नैयायिक आदि विद्वानोंको जिस जिस विषयमें अविसम्वाद है, उन उन विषयोंमें प्रमाणता है । भले ही केवलज्ञान सबको जानता है। फिर भी रसनाइंद्रियजन्य प्रत्यक्षमें जैसे मोदकरसका अनुभव होता है, वैसा केवलज्ञानसे नहीं। तभी तो केवलज्ञानी महाराजको अभक्ष्य, मांस, मद्य, आदिका ज्ञान होते हुये भी अणुमात्र दोष नहीं लगता है । वस्तुतः दोष लगनेका कारण रासनप्रत्यक्ष द्वारा कषायप्रयुक्त गृद्धिपूर्वक अनुभव करना है, जो कि केवलज्ञानी महाराजके पास नहीं है । यो सूक्ष्मतासे विचारा जाय तो सभी ज्ञानों द्वारा विषयग्रहण करनेमें अनेक प्रकार के अन्तर हैं।
खस्मिन्नर्थे च देशतो ग्रहणयोग्यतासद्भावात् मतिश्रुतयोर्न सर्वथा प्रामाण्यं, नाप्यवधिमनःपर्यययोः सर्ववस्तुषु केबलस्यैव तत्र प्रामाण्यादिति सिद्धांताविरोध एव " यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता" इति वचनस्य प्रत्येयः।
मतिज्ञान और श्रुतज्ञानकी अपने और अर्थमें एक देशसे ग्रहण करनेकी योग्यता विद्यमान है। अतः सभी प्रकारसे उनमें प्रमाण्यपना नहीं है तथा अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञानमें भी सभी प्रकारोंसे प्रमाणता लबालब भरी हुई नहीं है। हां, सम्पूर्ण वस्तुओंमें केवलज्ञानकी ही स्व और अर्थको जाननेमें ठसाठस प्रमाणता हो रही है । इस कारण जैन सिद्धान्तसे इस वचनका कोई विरोध नहीं