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संपादकीय वक्तव्य
पाठकोंके करकमलोमें आज तत्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकारके तृतीय खंडको देनेमें हमें परम हर्ष होता है। हम जानते हैं कि इस खंडके प्रकाशनकी हमारे स्वाध्यायप्रेमियोंको कुछ अधिक समय प्रतीक्षा करनी पडी, जिसके लिए हम क्षमा चाहते हैं । गत वर्ष हमारे पूज्य ज्येष्ठ भ्राता पं. लोकनाथजी शास्त्रीके आकस्मिक वियोगके कारण हमारे ऊपर जो संकट उपस्थित हुआ, उससे मनस्थिति अनुकूल न रहने के कारण हम इस कार्यमें अधिक योगदान न करसके । हमारी विकलतःके कारण मनकी स्थिति उत्साह पूर्ण न थी, अन्य भी कुछ कारणोंसे इस कार्यमें विलंब हुआ । इस विवशताके लिए पश्चात्तापके सिवाय हम क्या कर सकते हैं। प्रकृत-ग्रंथका महत्व
प्रकृत ग्रंथके महत्वको पुनः पुनः लिखनेकी आवश्यकता नहीं है । भगवदुमास्वामीका तत्वार्थसूत्र जैन तत्वज्ञानका प्राण है । हिंदू संप्रदायमें भगवद्गीताके लिए जो आदरणीय स्थान है, उससे भी अधिक महत्वपूर्ण स्थान जैन संप्रदायमें तत्वार्थसूत्रके लिए है । वह एक आदर्श आगम ग्रंथ है । इसीलिए अनेक उद्भट आचार्योने उक्त ग्रंथंका ही विवेचन गद्यपद्यात्मकरूपमें करनेमें ही अपने समय एवं बुद्धिकौशल्यका सदुपयोग किया है । महर्षि विद्यानंदस्वामीने भी इस परमागमके जटिल गुत्थियोंको अपनी स्वतंत्र शैलीसे सुलझानेके लिए इस ग्रंथकी रचना की है एवं तत्वजिज्ञासु बंधुवोंके लिए परम उपकार किया है, इसमें कोई संदेह नहीं है । संस्कृतके प्रगाढ विद्वानोंको मूल ग्रंथके अध्ययनसे परम आनंद होगा ही। परंतु इस संस्करणके प्रकाशनसे देशमाषाभिज्ञ स्वाध्याय प्रेमियों का भी उपकार हो रहा है। जिसका श्रेय श्रीतरत्न, सिद्धांतमहोदधि पं. माणिकचंदजी न्यायाचार्यको है, जिन्होने अत्यंत सरल, विस्तृत भाषा टीका लिखने में सतत वर्षों अथक परिश्रम कर अपनी विद्वत्ताका सदुपयोग किया है।
प्रथम खंडमें केवल एक सूत्रकी व्याख्या वार्तिकसहित दी गई है। दूसरे खडमें आगेके सात सूत्रोंकी व्याख्या आगई है, 'सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनादि' सूत्रतकका विवेचन उस खंड में हमारे प्रेमी पाठक देख चुके हैं। अब इस तीसरे खंडमें नौवें सूत्रसे लेकर २० वें सूत्रतक अर्थात् ' श्रुतंमतिपूर्व घनेक द्वादशभेदम् ' इस सूत्रतकका विवेचन आचुका है। करीब ६५० पृष्ठोंका हम एक एक भाग कर रहे हैं । इस हिसाबसे पहिले अध्यायकी समाप्तिमें और दो माग होंगे अर्थात् प्रथमाध्याय पांच खंडोंमें समाप्त हो सकेगा, ऐसा अनुमान है। फिर नौ अध्याय शेष रहेंगे, उन्हे हम आगे दो खंड में विभक्त करेंगे । इस प्रकार यह समग्र ग्रंथ सात खंडोमें पूर्ण हो जायगा । इस वक्तव्यसे हमारे पाठक इस ग्रंथकी महत्ताका अनुभव किये बिना न रहेंगे | इसके प्रकाशनसे साहित्यसंसारका महदुपकार