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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
कारणोंके द्वारा शब्दकी उत्पत्ति नहीं मानकर अभिव्यक्ति माननेमें अनेक दोष आते हैं। एक देशसे या सकल देशसे अभिव्यक्ति माननेपर शद्वको अंशसहितपना प्राप्त होता है । कर्ताका अस्मरण हेतु असिद्ध है । अन्य वादियोंको वेदके कर्ताका स्मरण हो रहा है । वेदाध्ययन वाच्यपना हेतु समीचीन नहीं है । वेदका उच्चारण करते हुये ऊपर नीचे हाथ उठाकर नमाकार “वं " आदि अनर्थक शद्बोंके उच्चारणकी लीला दिखलाना केवल बालविलास है। सम्भव है मंत्र प्रयोगोंमें उदात्त, अनुदात्त, के उच्चारणसे शब्दोंका शुद्धप्रयोग कचित् हो जाय, किन्तु एतावला शब्दस्वरूप वेद अनादि अपौरुषेय नहीं हो सकता है । स्वर्गमें पढकर मर्त्यलोकमें पढाना ऐसी बातें केवल श्रद्धागम्य हैं । परीक्षाकी कसोटीपर कसनेसे छिन्न भिन्न हो जायगी। नैयायिक, वैशेषिक, बौद्ध, जैन तो वेदोंके कर्ताको अभीष्ट करते हैं । इस प्रकार अनेक युक्तियोंसे वेदके श्रुतपनेका निराकरण कर गुणवान् वक्ताके द्वारा कहे गये वाक्योंमें ही बाधारहितपन आदिक सिद्ध किये है। श्री समन्तभद्र भगवान्की नीति अनुसार सर्वथा एकान्त वादियोंका निराकरण कर श्री अकलंकदेवके मन्तव्यका विचार किया है। यहां युक्तियोसे अकलंक सिद्धान्तको श्रीविद्यानन्द आचार्य ने साध लिया है । शब्दानुविद्धवादियोंका मत प्रशस्त नहीं है। वैखरी आदिक भेद तो जैनसिद्धान्त अनुसार माननेपर ही सवते हैं, अन्यथा नहीं । जगत्को शब्द ब्रह्मका विवर्त मानना प्रमाणोंसे बाधित है। द्रव्यवाक् और भाववाक्में सम्पूर्ण भेद प्रविष्ट हो जाते हैं। उपमान प्रमाण भी श्रुतमें गर्मित हो जाता है। शब्दयोजनासे सहित हो रहे, स्थूलपन आदिके आपेक्षिक ज्ञान श्रुतज्ञान ही हैं । उपमा, रूपक, तुल्ययोगिता, आदिसे आक्रान्त हो रहे वाक्योंसे उत्पन्न हुये ज्ञान श्रुतज्ञान हैं । उत्तरकी प्रतिपत्ति हो जाना रूप प्रतिभा या सम्भव, अर्थापत्ति, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा आदिक सभी ज्ञान इन शब्दोंकी योजना लग जानेपर श्रुत हो जाते हैं। क्योंकि अर्थसे अर्थान्तरका ज्ञान हो जाना यह श्रुतका लक्षण घटित हो जाता है । हां, नामका संसर्ग नहीं लगते हुए उत्पन्न हो रहे, उक्त ज्ञान तो मतिज्ञानस्वरूप हैं । यह पक्का सिद्धान्त समझो। स्वपरकल्याणको चाहनेवाले परीक्षकोंकरके पदार्थका निर्णय हो चुकनेपर उसको हृदयमें धार लेना चाहिये । ऐसी पूज्य पुरुषोंकी आज्ञा है । इस प्रकार ज्ञानोंका निरूपण करते समय मतिश्रुतरूप परोक्षज्ञानोंका विशद कथन करनेवाले तृतीय आह्निकको श्रीविद्यानंद आचार्यने प्रसन्नतापूर्वक पूर्ण किया है।
द्रव्येक्षानाद्यनन्तो निखिलमतिनिदानोङ्गबाह्याङ्गभेदो । निर्दोषो दुःखतप्तासुमदवनपटुर्निष्कलङ्काशिषेद्धः ।। विद्यानन्दाकलङ्गोक्त्यमतकिरणभत्मातिभाद्यैः कलाठ्यो।
भावाद्येकान्तवाणीतिमिरततिभिदे द्योततां वै श्रुतेन्दुः॥१॥ इति श्लोकवार्तिक भाषाटीकायां तत्त्वार्थचिन्तामणौ श्रुतज्ञानविवरणं समाप्तम् ।
युमास्वामिसमन्तादिभद्रयोः सूक्तयो भृशम् । सवेसम्पदायाप्ताः प्रामाण्याचाश्वकासतु ॥ १॥