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तत्त्वार्थकोकवार्तिके
सूक्ष्मायाः पुनरन्तम्भकाशमानस्वरूपज्योतिर्लक्षणत्वं कथंचिनित्यत्वं च नित्योहाटिताभिरावरणलब्ध्यक्षरज्ञानाच्छक्तिरूपाच चित्सामान्यान विशिष्यते । सर्वथा नित्याद्वय रूपत्वं तु प्रमाणविरुदस्य वेदितप्रायम् । इत्यर्क प्रपंचेन ।
फिर चौथो सूक्ष्माका लक्षण तुमने अन्तःप्रकाशमान ज्योतिःस्वरूप किया है, और उसको नित्य माना है, तहां कथंचित् नित्यपना ठीक है । हम स्याद्वादियोंके यहां नित्य उद्घाटित हो रहे धौर केवलज्ञानके समान निरावरण तथा क्षयोपशमलन्धिसे अविनाशी हो रहे, ऐसे सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके मी शक्तिरूप चैतन्य सामान्यसे अथवा अन्य क्षयोपशमिक शक्तिरूप लब्धियोंसे तुम्हारी सूक्ष्मा वाणीका कोई विशेष नहीं दीख रहा है। हां, सभी प्रकारोंसे उस सूक्ष्मावाणीको नित्य और अद्वैतस्वरूप मानोगे सो तो प्रमाणविरुद्ध है । अर्थात्-प्रमाणोंसे विरुद्ध हो रहे पदार्थको ही सर्वथा नित्यपना या अद्वैतस्वरूपपना भले ही कह दिया जाय, किन्तु प्रमाणसे उत्पन्न हो रही वस्तुमें सर्वथा नित्यपन या अद्वैतपन नहीं बनते हैं । इस बातको हम बहुत बार निवेदन कर चुके हैं, या समक्षा चुके हैं । तिस कारण यहां अधिक विस्तार करनेसे कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। ___"श्रुवं शबानुयोजनादेव" इत्यवधारणस्याकळकाभिप्रेतस्य कदाचिद्विरोधाभावात् । तथा संप्रदायस्याविच्छेदाहुक्त्यनुग्रहाच्च सर्वमतिपूर्वकस्यापि श्रुतस्पाक्षरज्ञानत्वव्यवस्थितेः।
शब्दकी अनुयोजनासे ही श्रुत होता है, इस प्रकार श्री अकलंकदेवको अभिप्रेत हो रहे अवधारणका कभी भी विरोध नहीं पडता है । श्रोत्रसे अतिरिक्त अन्य इन्द्रियोंसे जन्य मतिज्ञानद्वारा हुये अर्षान्तरके ज्ञानमें या अवाष्प श्रुतज्ञानमें अथवा अन्य श्रुतोंमें भी भाववाक्प चैतन्य शब्दोंकी योजना कर देनेसे ही श्रुतपना व्यवस्थित हो सकता है, अन्यथा नहीं । पूर्वसे चली आरही तिस प्रकारकी आम्नायोंकी विच्छित्ति नहीं हुयी है । इस कारण और युक्तियोंका अनुग्रह हो जानेसे मी सम्पूर्ण मतिज्ञानोंको पूर्ववर्ती कारण मानकर मी उत्पन्न हुये श्रुतको अक्षरज्ञानपना व्यवस्थित होगया है। यानी मावशद्वोंकी योजना कर देनेसे ही वे श्रुत हो सके हैं।
अत्रोपमानस्यान्तर्भा विभावयन्नाह ।
शब्दकी अनुयोजनासे ही श्रुत होता है अथवा श्रुत ही शब्दकी अनुयोजनासे होता है । इसका विचार कर अब नैयायिकोंद्वारा पृथक् प्रमाण माने गये उपमानके अन्तर्भावका विचार कराते हुये आचार्य महाराज स्पष्ट व्याख्यान कहते हैं।
कृतातिदेशवाक्यार्थसंस्कारस्य कचित्पुनः । संविलसिद्धसापाचथा वाचकयोजिता ॥ ११७ ॥