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तत्वार्थचिन्तामणिः
अतः इस प्रकरण में श्री अकलंकदेवके वचनकी बाधा कभी भी नहीं सम्भवती है। क्योंकि तिस प्रकार के सर्वोक्त चले आरहे सम्प्रदाय ( आम्नाय ) का विच्छेद नहीं हुआ है। तथा शद्वकी योजनासे ही श्रुत होता है । इस सिद्धान्तमें भी पूर्वोक्त अनुसार युक्तियोंका अनुग्रह हो रहा है। शद्वकी योजना से श्रुत ही होता है। इस पूर्वनियमको तो आचार्य महाराज सर्वथा इष्ट कर ही चुके हैं।
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ननु न श्रोत्रग्राह्या पर्यायरूपा वैखरी मध्यमा च वागुक्ता शहाद्वैतवादिभिर्यतो नामांतरमात्रं तस्याः स्यान्न पुनरवैभेद इति । नापि पश्यंती वागुवाचकविकल्पलक्षणा सूक्ष्मा वा वाक्शद्वज्ञानशक्तिरूपा । किं तर्हि । स्थानेषूरः प्रभृतिषु विभज्यमाने विद्वते वायवर्णस्वमापद्यमाना वक्तृमाणवृत्तिहेतुका वैखरी । “ स्थानेषु विवृते वायौ कृतवर्णत्वपरिग्रहा । वैखरी बाक् प्रयोतॄणां प्राणवृत्तिनिबन्धना " इति वचनात् ।
यहांपर शद्वानुविद्धवादीका पक्ष लेकर कोई विद्वान् अपने मतका अवधारण करते हुये कहते हैं कि श्रोत्रसे ग्रहण करने योग्य वैखरी और मध्यमा वाणी जो शद्वाद्वैतवादियोंने कही है, वह जैनोंद्वारा मानी गयी पर्यायरूप वाणी नहीं है, जिससे कि उसके केवल नामका अन्तर समझकर उस पर्यायवाणीका दूसरा नाम ही मध्यमा या वैखरी हो जाय । किन्तु फिर अर्थभेद नहीं हो सके और इस प्रकार जैन लोग अपने मतानुसार कहनेवाले शद्वाद्वैतवादियोंकी उक्तियोंपर अधिक प्रसन्नता प्रकट करें तथा वाचकोंका विकल्पस्वरूप पश्यन्ती वाणी भी नहीं मानी गयी है। हमारे यहांपर पश्यन्तीका लक्षण न्यारा है । अतः हम जैनमतके अनुसार कह रहे हैं, ऐसा हर्ष नहीं मनाओ अथवा हम शद्बाद्वैतवादियोंके यहां शद्वशक्तिस्वरूप या व्यक्तित्वरूप सूक्ष्मावाणी नहीं मामी गयी है। जो कि जैनोंके यहां वक्ताकी शक्तिस्वरूप होकर भाववाक् होती हुयी उनकी प्रसन्नताका कारण बने तो शद्बाद्वैतवादियों के यहां बैखरी आदिक कैसी मानी गयी हैं ? इसका उत्तर यह है छाती, कंठ, तालु इत्यादि स्थानोंमें विभागको प्राप्त हो रहे वायुके रुककर फट जानेपर वह जो वायु इकार, ककार, इकार, आदि वर्णपनेका परिप्रह कर लेती है, वह वैखरी वाक् है । शद्वप्रयोक्ता जीव श्वासोच्छ्रासी प्रवृत्तिको कारण मानकर वैखरीवाणी उपजती है। हमारे प्रन्थोंमें ऐसा वचन है कि ताल आदि स्थानोंमें वायुके विभाग हो जानेपर 'वर्णपनेका परिग्रह करती हुयी और शद्व प्रयोक्ताओं की प्राणवृत्तिको कारण मानती हुयी वैखरीवाणी है। जैसे कि तुम्बी, वीन, वांसुरी आदिके छेदोंमेंसे मुखवायु विभक्त होती हुयी मिष्टखरोंमें परिणत हो जाती है । तथैव कानोंसे सुनने योग्य मोटी वैखरीवाणी शद्वब्रह्मका विवर्त है। तुम जैनोंके यहां पौगलिक शब्द तो ऐसे नहीं माने गये हैं। अतः हमारा तुम्हारा मिलान भला कहा जाय तो कैसे कहा जाय ? " कृतवर्णत्यपरिप्रहा यों लोकके एक पादमें नौ अक्षर हुये जाते हैं, जो इष्ट किये गये हैं । अथवा " कृतवर्णपरिप्रहा " पाठ ही साधु है ॥
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कि कचित्
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