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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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विकल्पज्ञान और द्रव्यवाक्के आत्मलाभका कारण है । भाववाक् भी व्यक्तिस्वरूप और शक्तिस्वरूप होकर दो प्रकार है । उस भाववाणीकी संज्ञा यदि अद्वैतवादियोंने पश्यन्ती धर दी है तो उसका निराकरण नहीं किया जाता है। भावार्थ-शद्वाद्वैतवादियोंने विकल्पस्वरूप निश्चयात्मक पश्यन्ती वाणी मानी है। हम जैन भी वीर्यान्तराय और मतिश्रुत ज्ञानावरण कर्मोंके क्षयोपशम होनेपर तथा अंगोपांग नामकर्मके उदयको पूर्णलाभ प्राप्त कर विकल्पोंका यथायोग्य अन्तर्जल्प करते हैं । वह पश्यन्ती या भाववाक् प्रकट होती हुयी द्रव्यवाणीका कारण है। यह भाववाक्का पहिला व्यक्तिरूप भेद हुआ।
वाग्विज्ञानावृतिच्छेदविशेषोपहितात्मनः । वक्तुः शक्तिः पुनः सूक्ष्मा भाववागभिधीयताम् ॥ ११०॥ तया विना प्रवर्तते न वाचः कस्यचित्कचित् । सर्वज्ञस्याप्यनंताया ज्ञानशक्तेस्तदुद्भवः ॥ १११ ॥ इति चिद्रूपसामान्यात्सर्वात्मव्यापिनी न तु । विशेषात्मतयेत्युक्ता मतिःप्राङ्नामयोजनात् ॥ ११२ ॥ शद्वानुयोजनादेव श्रुतमेवं न बाध्यते । ज्ञानशद्वाद्विना तस्य शक्तिरूपादसंभवात् ॥ ११३ ॥
भाववाक्का दूसरा भेद शक्तिभाववाक् है । वचनोंसे जन्य शाब्दबोधज्ञानको आवरण करने वाले कर्मोके विशेष क्षयोपशमसे उपाधिग्रस्त हो रहे वक्ता आत्माकी जो शक्ति है वह शक्तिस्वरूप भाषवाक् शब्दाद्वैतवादियोंकरके सूक्ष्मावाणी कही गयी दीखे हैं। क्योंकि उस शक्तिरूप सूक्ष्मावाणी के विना किसी भी जीवके कहीं भी वचन नहीं प्रवर्तते हैं । सर्वज्ञ भगवान्के भी अनन्तज्ञान, शक्ति या वीर्यशक्तिके होनेसे ही उस द्वादशांगवाणीकी उत्पत्ति हो रही मानी गयी है। अर्थात्-प्रतिपक्षी कोंके क्षयोपशम या क्षयके हो जानेपर प्रमेयोंका वाचन करानेके लिये या शब्दोंको यथायोग्य बनाने के लिये उत्पन्न हुयी पुरुषार्य शक्ति ही शब्दोंकी जननी है । उसका भले ही सूक्ष्मा नाम धरलो, कोई क्षति नहीं है । इस प्रकार सामान्य चैतन्यस्वरूपकी अपेक्षासे उस शक्तिस्वरूप सूक्ष्मावाणीको सम्पूर्णभाषामषी आत्माओंमें व्यापक हो रही हम मान सकते हैं। किन्तु विशेष विशेषस्वरूपनेसे तो सर्वव्यापक वह नहीं है । जैसा कि शब्दाद्वैतवादियोंने कहा था, दो इन्द्रियवाले जीवोंकी वाणी शक्तिसे पंचेन्द्रियजीवोंकी विशेषशक्तियां न्यारी न्यारी हैं। इस प्रकार नामयोजनासे पहिले स्मृति