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________________ ६३० तत्वार्थोकवार्तिके पदार्थों को तृतीय स्थान आगमप्रमाणसे घेर लिया गया माना है । अतः स्याद्वादियोंके श्रुत या श्रुतज्ञानका कोई भी बाधक नहीं है । अतः बाधारहितपना ही श्रुतकी सत्यताका ज्ञापक हेतु है । परागमे प्रमाणत्वं नैवं संभाव्यते सदा । दृष्टेष्टबाधनात्सर्वशून्यत्वागमबोधवत् ॥ ८१ ॥ 1 दूसरे नैयायिक, मीमांसक आदि पण्डितोंके स्वीकार किये गये आगममें प्रमाणपना सर्वदा नहीं सम्भावित हो रहा है । क्योंकि उन दूसरोंके आगमोक्त तत्त्वोंमें प्रत्यक्ष, अनुमान, आदि प्रमाणों करके बाधा उपस्थित होती है। जैसे कि सभी पदार्थों के शून्यपने या उपप्लुतपनेको पुष्ट करनेवाले आगमानों की प्रमाणता इन प्रत्यक्ष अनुमानोंसे बाधित है । युक्ति, तर्क, शास्त्र, अनुभवोंसे विरोध रहित वचनों को कहनेवाले वे प्रसिद्ध भगवान् श्रीअत देव ही निर्दोष होकर सर्वज्ञ हैं । अंत देवका प्रतिपादित किया गया आगम ही प्रमाण है। श्री जिनेन्द्रदेव के अमृतसे जो प्राणी चलाकर बाह्य हो रहे हैं, या अपने आप्तके अभिमान में दग्ध हो प्रत्यक्ष से ही बाधित है। मुरसा पुरुष यदि अमृत औषधिसे दूर भाग बाधा पड़ रही सबको दीखती है। मतरूपी रहे हैं, उनका अमीष्ट तो जाय तो उसके इष्टप्रयोजनमें भावाद्येकांतवाचानां स्थितं दृष्टेष्टबाधनं । सामंतभद्रतो न्यायादिति नात्र प्रपंचितम् ॥ ८२ ॥ कपिल, शून्यवादी, नैयायिक, अद्वैतवादी बौद्ध, मीमांसक, वैशेषिक, आदि एकान्तवादियों द्वारा माने गये भावरकान्त, अभावएकान्त, भेदएकान्त, अभेदएकान्त, क्षणिकएकान्त, नित्यएकान्त आदि एकान्तोंको प्रत्यक्ष, अनुमान, आदि प्रमाणोंसे बाधा आ जाना व्यवस्थित हो रहा है । सम्पूर्ण जीवोंको चारों ओरसे कल्याण करनेवाले श्री समन्तभद्राचार्यकी देवागमस्तोत्रमें कही गयी नीतिसे एकान्तवचनों का प्रमाणोंसे बाधित हो जाना जैसे कि प्रसिद्ध हो रहा है । इस कारण इस प्रकरण में हमने अधिक विस्तारपूर्वक विचार नहीं चढाया है । भगवान् समन्तभद्राचार्य महाराजने " भावैकान्ते पदार्थानां " यहांसे प्रारम्भ कर " इति स्याद्वादसंस्थितिः " पर्यन्त आप्तमीमांसा में सदेकान्त, एकत्रैकान्त, पृथक्त्वैकान्त, अवाच्यैकान्त, नित्यैकान्त, हेतुवाद, आगमवाद, पुरुषार्थवाद, ज्ञानस्तोकवाद, आदिक एकान्तवचनोंमें अनेक बाधायें आती हुयीं सिद्ध कर दी हैं । समीचीन विवा और आनन्दकी नीतिको बढानेवाले श्रीविद्यानन्द आचार्यने अष्टसहस्रीप्रन्थ में उन कारिकाओंका विशद अलंकार किया है । तत्र दृष्टव्यं । 1 करिष्यते च तद्वत्स यथावसरमग्रतः । युक्त्या सर्वत्र तत्त्वार्थे परमागमगोचरम् ॥ ८३ ॥
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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