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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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" आंख फटी पीर गयी" । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार जो प्रतिवादी कह रहा है, वह भी समीचीन विचार करनेवाला मीमांसक कैसे समझा जायः ? यो स्थूलबुद्धिवाले पुरुषों द्वारा किसी पदार्थका दुःसाध्यपन निर्णय हो जानेसे तो परमाणु पुण्य, पाप, आकाश, आदि अतीन्द्रियः पदार्थोकी भी जड कट जायगी। अतः प्रमाणपना साधनेके लिये अकृत्रिमपनेपर अधिक बलः मत डालो । नहीं तो प्रत्यक्षके कारण इन्द्रियां और अनुमानके कारण ज्ञापक हेतु तथा उपमानके कारण सादृश्य आदिकको भी समानपनेसे नित्यता माननेका प्रसंग आजावेगा । किसी दोषी पुरुषके द्वारा बोले गये शब्दसे उत्पन्न हुये ज्ञानसमान किसी किसी पुरुषोंके नेत्रोंके भी चाकचक्य, कामल, आदि दोषोंसे सहितपना देखा जाता है । कोई कोई हेतु. अविनामावरहित देखे गये हैं। सदृशफ्ना भी कहीं दोषयुक्त देखा जाता है । अतः उन चक्षु, लिंग, सादृश्य आदिसे उत्पन्न हुये सभी ज्ञानोंको अप्रमाणपनकी आंशकाका प्रसंग प्राप्त हो जायगा । तब तो मीमांसकों द्वारा इन्द्रियलिंग आदिको भी नित्य माननेके लिये कमर कसनी पड़ेगी। किन्तु मीमांसकोंने इन्द्रिय आदिकोंको नित्य नहीं माना है । " त्याज्या न यूकाभयतो हि शाटो" जुआंके डरसे धोती पहरना नहीं छोड़ा जाता है । यदि मीमांसक यों कहें कि मिथ्याज्ञानके निमित्त हो रहे अक्ष, लिंग आदिकसे समीचीन ज्ञानके कारण अक्ष आदिक न्यारे हैं। अतः समीचीन अनित्य चक्षु आदिकोसे. उत्पन्न हुयीं, वे सम्वित्तियां दुष्ट कारणजन्य नहीं हैं। हां, दुष्ट इन्द्रिय आदिकोंसे उत्पन्न हुये प्रत्यक्ष आदिक तो प्रत्यक्षामास, अनुमानाभास, उपमानाभास कहे जाते हैं । तब तो हम जैन कह देंगे कि तिस प्रकारके दोषयुक्त पुरुषोंके वाक्योंको भी श्रुति आभासपना क्यों नहीं इष्ट कर लिया जाय ! दोषयुक्त पुरुषोंके वाक्यसे. उत्पन्न हुआ ज्ञान श्रुताभास है । अथवा वेदकी श्रुतियां भी जो बाधासहित अर्थोको कर रही है, वे श्रुति-आभास हैं। सर्वत्र सदोष निर्दोष, गुणी गुणरहित, सज्जन दुर्जन, पापी पुण्यवान् , सबाध निर्बाध पदार्थ पाये जाते हैं । विवेकी पुरुष उक्त कारणोंका विवेचन सुलभतासे कर लेते हैं । अतः अक्ष, लिंग आदिके समान वैदिक शद्रोंको भी नित्य माननेकी आवश्यकता नहीं । हां, निर्दोष कारणसे जन्यपना और बाधारहितपना वचनोंमें ढूंढ लेना चाहिये ।।
गुणवद्वक्तृकत्वं तु परैरिष्टं यदागमे ॥ ७३ ॥ तत्साधनांतरं तस्य प्रामाण्ये कांचन प्रति। सुनिर्बाधत्वहेतोर्वा समर्थनपरं भवेत् ॥ ७४ ॥ तन्नो न पौरुषेयत्वं भवतस्तत्र तादृशं ।
अदुष्टकारण जन्यत्वमें नका अर्थ पर्युदासग्रहण करनेपर गुणवान् है वक्ता - जिसका, ऐसा गुणवत् वक्तरुपना तो दूसरे स्याद्वादी विद्वानोंकरके आगममें जो इष्ट किया गया है, अथवा कृत्रिम,