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तत्वार्थचिन्तामणिः
यदि मीमांसक पुनः यों कहें कि वेदोक्त वचनों को अत्रिमपना होनेसे प्रमाणपना साधा जाता है। ऐसा कहनेपर तो हम दिगम्बर जैन कहेंगे कि यों तो कर्मकाण्ड प्रतिपादक मंत्रोंकी स्तुति करनेवाले अर्थवाद वाक्योंको भी प्रमाणपना प्राप्त हो जावेगा । " सर्वज्ञः सर्ववित्" इत्यादि मंत्रों के ज्योतिष्टोम आदि याज्ञकमकी स्तुति की गई है। हे कर्म ! तुम सबको जाननेवाले हो, यज्ञकर्ता जीवोंको स्वर्ग आदिमें नियतरूप जानकर मेज देते हो, तुम अद्वैत हो, अनुपम हो, तुम्हारे समान कोई भी अनेक पदार्थ नहीं हैं । तुम्हारा ही श्रवण मनन, ध्यान, करना चाहिये, आदि । किन्तु सर्वज्ञ प्रतिपादक या अद्वैतप्रतिपादक वेदवाक्योंको मीमांसकोंने अनादिकालके अकृत्रिम होते ये भी प्रमाण नहीं माना है । अतः व्यभिचारदोष हुआ ।
अदुष्टहेतुजन्यत्वं तद्वत्प्रामाण्यसाधने । हेत्वाभासनमित्युक्तमपूर्वार्थत्वमप्यदः ॥ ६६ ॥
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मीमांसकों द्वारा वेदवचनको प्रमाणपना साधनेमें दिया गया दुष्ट हेतुओंसे अजन्यपना हेतु भी उसी अकृत्रिमपन हेतुके समान व्यभिचारी हेत्वाभास है। यह भी उक्त कथनकरके कह दिया गया समझो । अर्थात् — निर्दोष हेतुओंसे जन्यपना यह भावप्रधान अर्थ अपौरुषेय वेदमें नहींका नञ्को जन्य पद में अन्वित करके अदुष्टहेतु जन्यत्वका अर्थ दुष्ट हेतुओंसे नहीं जन्यपना वेदवाक्योंमें धरा जायगा तो भी अर्थवाद ( स्तुतिपरक वैदिकमंत्र ) वाक्योंकरके व्यभिचार तदवस्थ रहा तथा वह अपूर्व अर्थोका ग्राहकपना हेतु भी वेदके प्रामाण्यको नहीं साध सकता है। अर्थवाद वाक्योंसे व्यमिचार दोष आता है । स्तुतिवाक्य भी तो नवीन अपूर्व अर्थोको विषय करनेवाले हैं। अतः अनेक वादियोंके यहां इष्टप्रमाणोंमें प्रमाणताको साधनेके लिये प्रयुक्त किये जा रहे अकृत्रिमपन, अदुष्टहेतुजन्यत्व, अपूर्वार्ध ग्राहकपन, ये तीन ज्ञापक हेतु तो वेदवचनोंको प्रमाणपना साधने में - दूषित कर दिये गये हैं ।
बाधवर्जितता हेतुस्तत्र चेल्लेंगिकादिवत् ॥ ६७ ॥ किमकृत्रिमता तस्य पोष्यते कारणं विना ।
वेद वचनों प्रमाणपना साधनेके लिये बाधवर्जितपना हेतु यदि कहा जायगा तब तो हम जैन कहेंगे कि लिंगजन्य अनुमान या प्रत्यक्षप्रमाण आदिके समान वेद वचनोंके अनित्य होते हुये मी प्रमाणपना सरलतया निर्वाहित हो सकता है। फिर विनाकारण ही उस वेदका अकृत्रिमपना. क्यों पुष्ट किया जा रहा है ? बताओ। अर्थात् मीमांसकों द्वारा वेदको प्रामाण्य साधनेके लिये वैदिक शोंकी नियता या अकृत्रिमपना साधा जा रहा है। किन्तु after या कृत्रिम अनुमान, प्रत्यक्ष, अर्थापत्ति आदिकी प्रमाणताके
वेदको नित्य नहीं मानते हुये भी
समान वेद भी अनित्य होकर
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