________________
तत्त्वार्थचिन्तामाणः
१२
- यदि यहांपर कोई यों कहें कि इस प्रकार आप जैनोंके यहां प्रमिति और प्रमाणके साथ प्रमाताका जब सर्वथा अभेद हो गया तो फिर उनका प्रमिति, प्रमाण और प्रमातारूपसे विभाग करना तो कल्पित ही होगा, वास्तविक विभाग न हो सकेगा, आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं मानना चाहिये। क्योंकि हम जैनोंने सर्वथा अभेद नहीं माना है । किन्तु कथंचित भेद स्वीकार किया है। तभी तो प्रमिति, प्रमाण और प्रमाता, तीन न्यारे न्यारे विभाग हैं। इस पर सर्वथा भेदवादी यदि यों कहें कि उस आत्माका उन प्रमिति और प्रमाणके साथ सर्वथा भेद हो जानेसे फिर प्रमाताको ही प्रमितिपना और प्रमाणपना तो उपचरित ( गौण ) ही होगा। प्रमाताको प्रमिति या प्रमाणसे तदात्मकपना वास्तविक नहीं हो सकेगा, जैसा कि आप जैन लोग इष्ट करते हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह भी नहीं मानना चाहिये । क्योंकि किसी अपेक्षा उनके अभेदको भी हमने इष्ट किया है। इस प्रकारको दृढ कहकर दिखलाते हैं ।
स्यात्पमाता प्रमाणं स्यात्ममितिः स्वप्रमेयवत् । एकांताभेदभेदौ तु प्रमात्रादिगतो कनः ॥२०॥ एकस्यानेकरूपत्वे विरोधोपि न युज्यते। ... मेचकज्ञानवत्सायश्चिंतितं चैतदंजसा ॥ २१ ॥
प्रमाता अपनेको जानते समय जैसे स्वयं अपना प्रमेय बन जाता है, वैसे ही वह प्रमाता कथंचित् प्रमाणरूप भी है, और कथंचित् प्रमितिस्वरूप भी है । प्रमाता, प्रमिति, प्रमाण और प्रमेयमें एकान्तरूपसे प्राप्त हो रहे सर्वथा भेद अभेदोंको तो हमने कहां माना है ? भावार्थस्याद्वादियोंके यहां प्रमाता आदिको एकान्तरूपसे भेद अभेद नहीं माने गये हैं । एक पदार्थको अनेकरूप माननेमें विरोध दोष देना भी युक्त नहीं है, जैसे कि बौद्ध या नैयायिकोंके द्वारा माने गये एक चित्रज्ञानमें अनेक नील, पीत, आदि आकार प्रतिभासं रहे हैं । उसीके समान एक आत्मामें वास्तविक परिणतिके अनुसार प्रमेयपन, प्रमितिपन आदि स्वभाव बन जाते हैं । इस तत्त्वकी हम अवतार प्रकरणमें विस्तार के साथ प्रायः विचारणा कर चुके हैं।
यथैव हि मेचकज्ञानस्यैकस्यानेकरूपमविरुद्धमबाधितपतीत्या रूढत्वात् तथात्मनोपि तदविशेषात् । न ह्ययमात्मार्थग्रहणयोग्यतापरिणतः सन्निकर्षाख्यं प्रतिपद्यमानोपबाधप्रतीत्यारूढो न भवति येन कथंचित्पमाणं न स्यात् । नाप्ययमव्यापृतावस्थोऽर्थग्रहणव्यापारांतरवार्यविदात्मको न प्रतिभाति येन कथंचित्पमितिर्न भवेत् । न चायं प्रमितिप्रमाणाभ्यां । कथंचिदातरभूतः स्वतंत्रो न चकास्ति येन प्रमासा न स्यात् ।