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तत्वार्थचिन्तामणिः
यदि यहां कोई भेदवादी वैशेषिक यों कहें कि यों तो जो ही आत्मा प्रमाता स्वरूप है, वही प्रमाण कह दिया गया है, वही प्रमाता तो प्रमाण नहीं हो सकता है। ऐसा कहनेपर तो वही हमारी जैनोंकी सिंहगर्जना है कि प्रमाता और प्रमाण में किसी अपेक्षासे तादात्म्य सम्बन्ध है । अर्थग्रहणयोग्यता परिणति से परिणाम कर रहा आत्मा स्वतंत्र प्रमाता है । और उसका लब्धि और उपयोगरूप परिणाम तो करण होता हुआ प्रमाण है । तथा अज्ञाननिवृत्तिरूप परिणति प्रमिति है । अपनेको जानते समय स्वयं प्रमेयरूप भी है ।
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प्रमाता भिन्न एवात्मप्रमाणाद्यस्य दर्शने ।
तस्यान्यात्मा प्रमाता स्यात् किन्न भेदाविशेषतः ॥ १४ ॥
जिस वैशेषिक या नैयायिकके मतमें प्रमाणसे प्रमाता आत्मा सभी प्रकार भिन्न ही माना गया है, उसके दर्शन ( सिद्धान्त) में दूसरा आत्मा प्रमाता क्यों न हो जावे। क्योंकि भेद तो विशेषतारहित एकसा है । अर्थात् — देवदत्त प्रमाता प्रत्यक्ष प्रमाणसे घटको जान रहा है । यहां जैसे देवदत्तसे प्रत्यक्ष प्रमाण भिन्न है । उसी प्रकार जिनदत्तसे भी वह प्रत्यक्ष प्रमाण सर्वथा भिन्न है । ऐसी दशा में एकसा भेद होनेके कारण देवदत्त के समान जिनदत्त घटका प्रमाता क्यों न हो जावे तथा ईश्वरसे भिन्न पडे हुये उसके प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा गलीका पुरुष भी सूर्य, चन्द्र आदिके समान भिन्न पडे हुये ज्ञानोंपर सबका एकसा अधिकार है । प्रमाणं यत्र संबद्धं स प्रमातेति चेन्न किम् ।
सर्वज्ञ बन बैठेगा ।
कायः सम्बन्धसद्भावात्तस्य तेन कथंचन ॥ १५ ॥
जिस आत्मामें समवाय संबन्धसे प्रमाण जुड गया है, वह प्रमाता बनेगा, अन्य जिनदत्त, यो Total मनुष्य आदि प्रमाता नहीं बन सकेंगे। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो समाधान न करना क्योंकि यों तो उस ज्ञानका शरीर के साथ भी किसी अपेक्षा स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध विद्यमान है । ऐसी दशामें वह देवदत्तका शरीर ही प्रमाता क्यों नहीं होजावे । अर्थात् - देवदत्तके भिन्नज्ञानका जैसे देवदत्त में समवाय सम्बन्ध है, वह उसी प्रकार देवदत्त के शरीर में भी ज्ञानका स्वसमवायी संयोग सम्बन्ध है । स्त्रसे लिया ज्ञान उसके समवायवाला देवदत्तका आत्मा है, उस आत्मासे देवदत्तके शरीरका संयोग हो रहा है । अतः देवदत्तकी काय भी ज्ञानसे सम्बन्ध होनेके कारण प्रमाता बन जाओ तथा देवदत्तका ज्ञान स्वाश्रय संयोगसम्बन्धसे जिनदत्तकी आत्मा में भी सम्बन्धित हो रहा है । अतः देवदत्तके ज्ञान द्वारा जिनदत्त भी प्रमाता बन जाओ, अथवा देवदत्तसे भिन्न पडा हुआ ज्ञान उसके शरीर या जिनदत्त में समवाय सम्बन्धसे वर्तजाओ " क्कारी कन्या सहस वर " ऐसा प्रवाद प्रसिद्ध है । एक बात यह भी है कि प्रत्यक्षकें प्रकरण में सन्निकर्ष प्रमाण माना है । इन्द्रिय और अर्थके सन्निकर्ष के सम्बन्धी इन्द्रिय और अर्थ पडेंगे, किन्तु वे प्रमाता नहीं माने हैं ।