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________________ तालार्थ कोतवातिक श्रोत्रको भारी चोट पहुंचती है। अत्यधिक तीव्र शब्दसे गर्भपात, गृहका फट जाना, पर्वत शिलापात, भी हो जाते हैं । अतः शब्द पौद्गलिक है । आकाशका अमूर्त गुण नहीं है, यह सिद्ध हो चुका इस सिद्धान्तको अग्रिम पांचवें अध्यायमें और भी विस्तारके साथ समर्थन करा देखेंगे । यहां संक्षिप्त संकेतसे ही संतोष कर लेना चाहिये । तया वे सूक्ष्म शद्वपुरल पदार्थ तो गन्धखरूप परिणमे पुद्गल द्रव्यके समान मीति, छप्पर, परकोटा, आदिको भेद कर अपनेको प्रत्यक्ष करनेवाली कर्ण इन्दियको प्राप्त हो रहे सन्ते ही जानने योग्य हैं । इस कारण बप्राप्त हो रहे पुद्गलोंका श्रोत्रइन्द्रियसे प्राण नहीं होता है। कांच लगे हुये किवाडोंमेंसे वक्ताका मुख स्पष्ट दीखता है । किन्तु शब्द सुनाई नहीं पडते हैं । इसका कारण शब्दोंका काच भेद कर नहीं आना या स्वल्प आना है। बतः मीमांसक और नैयायिक वैशेषिकोंका शब्दके विषयमें मन्तव्य अच्छा नहीं है। ... कथं मृताः स्कंधाः श्रावणस्वभावाः कुव्यादिना मर्तियता न प्रतिहन्यते इति चेत तवापि वायवीया धनयः शब्दाभिव्यंजकाः कयं ते न प्रतिहन्यते इति समानं चोछ । . ....यहां आक्षेप है कि रूप, रस, आदिसे सहित हो रहे मूर्तपौद्गलिक शब्द ही कर्ण इन्द्रियसे सुनने योग्य स्वभावको धारते हुये भला कैसे मूर्तिमान् भीति आदि करके प्रतिघातको प्राप्त नहीं होते हैं ! मूर्तका मूर्तसे प्रतिघात अवश्य होना चाहिये। जैसा कि गजमस्तकका पर्वतसे प्रतिघात हो जाता है। इस प्रकार मीमांसकोंकी ओरसे कटाक्ष हो जानेपर तो हम जैन मी कहते हैं कि तुम्हारे यहां मी शद्धको अभिव्यक्त करनेवाली मानी गयी और वायुकी बनी हुयीं वे मुर्तध्वनियां ही भला क्यों नाही मीति, छत्त आदिकरके प्रतिघातको प्राप्त हो जाती हैं ! बताओ, जिससे कि शब्द सुनाई न पड़े। हमारे समान तुम्हारे ऊपर भी सकटाक्ष प्रश्न बसा ही खडा रहता है। ... तत्पतिघाते तब शवस्याभिव्यक्तेरयोगादनभिव्यक्तस्य च श्रवणासंभवादमतियातः सस्य दुव्यादिना सिद्धस्तदंतरितस्य श्रवणान्ययानुपपत्तेरिति चेत्, सत एव शहात्मना शुद्रानामप्रतिघातोस्तु दृढपरिहारात् । दृष्टो हि गंधात्मपुरानामप्रतिघातस्तच्छब्दानां न विरुध्यते। ..यदि मीमांसक इस चोपका परिहार यों करें कि भौति आदिकसे वायुनिर्मित उन ध्वनियोंका यदि प्रतिघात हो जाना माना जायगा तो उस मित्तिकरके व्यवहित हो रहे प्रदेश प्रथमसे विद्यमान हो रहे नित्य, व्यापक शद्बकी अभिव्यक्ति हो जानेका योग्य नहीं बन सकेगा। और ऐसा होनेसे नहीं प्रकट हुये शङ्कका कर्ण इन्द्रिवद्वारा सुनना असम्भव पड जायगा । अतः उस वायुरचित पनिका झोपडी आदिकरके प्रतिघात नहीं होना अर्थापत्तिसे सिद्ध है। क्योंकि उन कोट, भीति आदिसे व्यवहित हो रहे शद्वका सुना जाना अन्यथा यानी व्यंजक वाबुओंका अप्रतिघात हुये विना नहीं बन सकेगा । इस कारण वायुखरूप ध्वनियोंका भीतर आजाना प्रतिरोधके बिना हम मावलेते हैं । इस प्रकार मीमांसकके कहनेपर तो हम जैन भी कहते हैं कि तिस ही
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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