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तत्वाखोककार्तिके
अप्राप्यकारी है ( साम्यः ) इस प्रकार जो कोई मीमांसक महाशय कह रहे हैं, वह कहना भी सत्य नहीं है। क्योंकि यों तो दूरदेशमें स्थित हो रही गन्धको में सूंघ रहा हूं, इस प्रकार होता शुमा व्यवहार भी देखा है ( हेतु ) । अतः नासिकाको ( पक्ष ) अप्राप्यकारीपना ( साध्य ) सिद्ध हो जानेका प्रसंग आवेगा और तब तो इष्टसिद्धान्तकी हानि हो जायगी । नासिकाका अप्राप्यकारीपना तो वादीप्रतिवादी दोनोंने भी अभीष्ट नहीं किया है। अतः श्रोत्रका अप्राप्यकारपिन सिद्ध करना प्रशस्त नहीं है। मन इन्द्रिय मतिद्वानद्वारा धर्म, अधर्म द्रव्य आदिको भी परोक्ष जानती है। " श्रुतमनिन्द्रियस्य " इस सिद्धान्त अनुसार मन अत्यन्त परोक्ष पदार्थीको भी विषय करने बाला माना है। किन्तु वह अप्राप्यकारी है।
गंधाधिष्ठानभूतस्य द्रव्यप्राप्तस्य कस्यचित् । दूरत्वेन तथा वृत्ती व्यवहारोत्र चेन्नृणाम् ॥ ९३ ॥ समं शब्दे समाधानमिति यत्किंचनेदृशं ।
चोद्यं मीमांसकादीनामप्रातीतिकवादिनाम् ॥ ९४ ॥ ... प्रकृष्ट गन्धवाले द्रव्यको अधिष्ठानभूत मानकर उसकी वासनासे वासित हो रहे किसी दूरवर्ती प्राप्त हो रहे द्रव्यका ही सम्बन्ध हो जानेपर दूरपनेसे तिस प्रकारके ज्ञानकी प्रवृत्ति हो जाती है और तैसा होनेपर मनुष्यों के इस गन्धमें दूरवर्ती गन्धको जाननेका व्यवहार हो जाता है। गांव-मूल प्रकृष्ट गन्धयुक्त-द्रव्यकी गन्धसे सुवासित पौगलिकपदार्थका सम्बन्ध होनेपर ही प्राण इन्द्रिय सूंघती है। इस प्रकार कहनेपर तो शब्दमें भी वही समाधान सदृश है। यों प्रतीतिके अनुसार नहीं कहनेवाले मीमांसक, वैशेषिक, आदिकोंके द्वारा जो कोई भी ऐरे गैरे सकटाक्ष, प्रश्न उठाये जायेंगे, उनका समाधान गन्धद्रव्यके दृष्टान्तसे कर दिया जायया । अथवा श्रोत्रपर दिये गये शंकासमाधान उसीके समान प्राण इन्द्रियपर भी लागू हो जायेंगे।
कुव्यादिव्यवधानेपि शब्दस्य श्रवणाद्यदि । श्रोत्रमप्राप्यकारीष्टं तथा घ्राणं तथेष्यतां ॥ ९५ ॥ द्रव्यांतरितगंधस्य प्रातसूक्ष्मस्य तस्य चेत् । प्राणप्राप्तस्य संवित्तिः श्रोत्रप्रायस्य नो ध्वनेः ॥ ९६ ॥ यथा गंधाणवः केचिच्छक्ताः कुट्यादिभेदने। सूक्ष्मास्तथैव नः सिद्धाः प्रमाणध्वनिपुद्गलाः ॥ ९७ ॥ ::