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तत्वार्थ लोक वार्तिके
करदेता है । बूरेमें पिसी हुई कालीमिरचें मिला देनेपर कुछ देरतक यों ही बंधके लिये घरे रहने से दोनों के रसगुण में विशिष्टपरिणाम हो जाते हैं। हां, बूरेमें चांदी, सोने, लोहेका चूरा मिला देनेपर संयोग हो जाने मात्र से दोनोंका रसान्तर नहीं हो पाता है। सम्भव है, अधिक कालमें बंध हो जानेपर रसायनप्रक्रियाद्वारा गुणोंकी विभिन्न परिणतियां हो जांय । कांसा या पीतल तो दही या खटाईका शीघ्र विपरिणाम करदेते हैं । निमित्तनैमित्तिक भावको इन्द्र, चक्रवर्ती भी टाल नहीं सकता है । अस्तु, यहां नैयायिक जो कह रहे हैं, उनकी बात सुनलो । उष्ण जलमें तेजोद्रव्य उद्भूत स्पर्शवाला है । उद्भूतरूप और अनुद्भूतस्पर्शवाले आलोक, प्रभा दीप्ति आदि हैं । तथा उद्भूत स्पर्श और अनुद्भूतरूपवाले उष्णजलसंयुक्त तैजस आग आदि हैं । उक्त इन दोनों जातिके तैजसद्रव्यों से मिन्न जितने भी अग्नि, ज्वाला, तप्तठोह गोला, चमकीली बिजली, अंगार, आदि पदार्थ हैं, वे सब तैजस पदार्थ उन उद्भूत भास्वररूप और उद्भूत उष्णस्पर्श दोनों सहित है । हां, तेजोद्रव्यके उपयोगी उद्भूतरूप और उद्भूत स्पर्श दोनों जिसमें अप्रकट होय, ऐसा तेजोद्रव्य तो कोई नहीं देखा गया है, जिससे कि चक्षु भी तिस प्रकार होता हुआ अनुद्भूत रूपवान् और अनुद्भूत स्पर्शवान् मान लिया जाय । अभिप्राय यह है कि आप वैशेषिक यदि चक्षुको तैजसद्रव्य मानते हैं तो उद्भूतरूप और उद्भूत उष्णस्पर्श दोनोंमेंसे एकको तो अवश्य नेत्रमें प्रकट मानियेगा। दोनोंके अप्रकट माननेपर तो वह नेत्र तैजस कथमपि नहीं सम्भव सकते हैं। यदि पुण्य या पाप के वशसे उस नेत्रमें दोनोंके उद्भूत नहीं होनेपर भी तैजसपना मान लिया जायगा, अथवा तैजसनेत्रके भी किन्हीं जीवोंके पुण्य, पाप, अनुसार दोनों रूप स्पर्शोका उद्भूपतना नहीं दृष्टिगत हो रहा स्वीकार किया जायगा, तब तो सम्पूर्ण इन्द्रियों को तिस प्रकारका अनुद्भूतरूप स्पर्शवाला क्यों नहीं मान लिया जाय ? जैसे कि नैयायिकोंने स्वर्णके बने हुये घट में उष्णस्पर्श और भास्वररूप दोनोंका अप्रकटपना माना है, वैसे तो सोनेका घडा पीला और अनुष्ण, शीतस्पर्शवाला दीख रहा है । इसीके समान स्पर्शनरसना आदि इन्द्रियां भी तेजस बन बैठेंगी। बावदूक कह सकते हैं कि इन्द्रियधारी जीव आंखों या अन्य इन्द्रियोंसे भुरस नहीं जांय, अथवा उनकी आंखें दूसरेकी तैजस आंखोंसे चकाचौंध में नहीं पड जांय, इसके उपयोगी पुण्यके उदयसे उन इन्द्रियोंके स्पर्श, रूपोंका प्रकट अनुभव नहीं हो पाता है। कभी कभी पुण्य और पापका उदय होनेपर चमकीले और अति उष्ण पदार्थ भी विपरीत मास जाते हैं और कदाचित् अनुष्ण या धूसरित पदार्थ भी पुण्य, पाप अनुसार उष्ण, चमकदार, भास जाते हैं। भाग्यवान् के दोषगुणरूपसे और भाग्यहीनके गुण भी दोषरूपकरके कहे जाते हैं । इस ढंगसे प्रत्यक्षाविरुद्ध बातों में नैयायिकोंका युक्ति लडाना प्रशंसनीय नहीं है । " अग्नेरपत्यं प्रथमं हिरण्यं " ऐसे वाक्योंपर अन्धविश्वास करके फिर अपने ताविक सिद्धान्तको वहां घसीटना परीक्षकोंको शोभा नहीं देता है। सुवर्ण पीला है, मारी है। अतः पीतल, चांदी, पीली मिट्टी, आदिके समान पार्थिव है। सुवर्णसे तो और भी अधिक चमकीले