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________________ ५५ तस्वार्थश्लोकवार्तिके चक्षुमें तैजसत्वको साधनेके लिये दिये गये रूपका ही प्रकाशकपना हेतुका दिनमें निशानाथ यानी चन्द्रमाकी किरणोंकरके व्यभिचारीपना है। अर्थात् प्रभाको दृष्टान्त मान लेनेपर हेतुमें परकीय विशेषण नहीं हैं । अतः दिनमें मन्दप्रभ चमकती हुई चन्द्रमाकी किरणें स्वके रूपकी अभिव्यंजक हैं। किन्तु वैशेषिकोंने उनको तैजस नहीं माना है । तथा चन्द्रकान्तमणि, पनारत्न आदिसे भी व्यभिचार होता है | चन्द्रकान्त, माणिक्य, पन्ना, वैडूर्य मणियोंको तुम वैशेषिकोंने तैजस नहीं माना है । यदि चन्द्रकान्त रत्नकी भूमि आदिमें तैजसद्रव्यको धरा हुआ मानकर उनमें पायी जानेवाली किरणोंमें तेजोद्रव्यका अन्वित होकर सूत बंधा हुआ मान लिया जायगा सो तो ठीक नहीं पडेगा । क्योंकि तेजोद्रव्यपदार्थोकी प्रभा तो मूलमें उष्णतासे सहित होती है । "मूलोण्हपहा अग्गी आदाओ होइ उण्हसहिय पहा। आइच्छे तेरिच्छे उण्ण्हूण पहाउ उज्जोओ" मूलमें उष्ण और प्रभामें भी उष्ण जो पदार्थ है, वह अग्निस्वरूप तैजस पदार्थ है। किन्तु मूलमें अनुष्ण ( शीतल ) और प्रभाग उष्ण पदार्य सूर्य तो आतपयुक्त कहा जाता है । मूल और प्रभा दोनोंमें उष्णतारहित पदार्थ चन्द्रमा, पन्ना, खद्योत, उद्योतवान् बोले जाते हैं । जैनसिद्धान्त अनुसार सूर्यविमानका शरीर सर्वथा उष्ण नहीं है। किन्तु उसकी प्रभा अति उष्ण है । अतः सूर्य किरणोंसे भी व्यभिचार हो सकता है। जलकी जमाई हुयी बर्फ अति शीतल है। किन्तु उसका प्रभाव ( असर ) उष्ण है । छोटी पीपल, अभ्रकमस्म, चन्द्रोदय रसायन मूलमें शीतल हैं। किन्तु शरीरमें अति उष्णताके उत्पादक हैं। पदार्थोकी शक्तियां अचिन्त्य हैं । तपखी, साधु स्वयं रोगी, निर्धन और कोई कोई अभव्य होकर भी अन्य जीवोंको नीरोग, धनवान्, या मोक्षमार्गी बना देते हैं। चूना स्वयं लाल रंगका नहीं है। किन्तु हल्दीको लाल कर देता है। जड द्रव्यश्रुत अनन्त जीवोंको भेदविज्ञानी, श्रुतकेवली बना देता है । जल और घृत दोनों भी अमृतके समान गुणकारी हैं। किन्तु मिलाकर दोनोंको रगडनेपर कुछ देर पीछे विषशक्तिवाले हो जाते हैं। तथैव मूलमें अनुष्ण हो रहा सूर्य भी उष्णप्रभाका उत्पादक है । लालटेनके हरे काचकी कान्ति (रोशनी ) ठण्डी होती है। और लाल काचकी प्रभा उष्ण हो जाती है । अतः मूल कारणमें उष्णतावाली प्रभासे सहित हो रही किरणें ही तैजस कही जा सकती हैं। अन्य पन्ना, मणि, वैडूर्यरन, नीलमणि आदिकोंको तो पृथ्वीका विकारपना प्रसिद्ध है। यानी जो मूलमें अनुष्ण है, और जिसकी प्रभा भी अनुष्ण है, वह तैजस नहीं है। चक्षुस्तैजसत्वे साध्ये रूपस्यैव व्यंजकत्वादित्यस हेतोचंद्राघुबोतेन मूलोष्णत्वरहितेन पार्थिवत्वेन व्यभिचारादगमकत्वात्तत्तैजसत्वस्यासिद्धेनं ततो रश्मिवच्चक्षुषः सिध्येत् । ___ चक्षुका तैजसपना साध्य करनेपर रूप आदिकोंके सन्निहित होनेपर रूपका ही व्यंजकपना होनेसे यों इस हेतुका चन्द्रमा, मरकत मणि आदिके उद्योतकरके व्यभिचार होगा, जो कि मूलमें पौर प्रभामें उष्णतासे रहित होता हुआ पृथ्वीका विकार माना गया है । चक्षुस्सनिकर्षमें व्यभिचार
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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