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तत्वार्थकवतिके
तथा शश्वदश्येन वेधसा निर्मितं जगत् ।
कथं निश्चीयते कार्यविशेषाच्चेत्परैरपि ॥ २९ ॥
बौद्धकी ओर होकर आचार्य महाराज वैशेषिकोंके प्रति आक्षेप करते हुये कहते हैं कि तुम वैशेषिक यहां भी सर्वदा अदृश्य हो रहे ईश्वर करके निर्माण किया गया यह जगत् तिस प्रकार कैसे निर्णीत किया जाता है ? बताओ । यदि पृथ्वी, सूर्य, इन्द्रियां, शरीर, पर्वत, समुद्र आदिक विशेष कार्योंसे सर्वज्ञ, सर्व शक्तिमान्, ईश्वर, स्रष्टा का अनुमान करोगे तो दूसरे बौद्धोंकर के मी उसी प्रकार अत्यन्त परोक्ष अर्थका अनुमान किया जा सकता है। न्यायमार्ग सबके लिये एकसा होना चाहिये ।
यथैवात्रास्मदादिविनिर्मितेतरच्छरीरादिविशिष्टं कार्यमुपलभ्य तस्येश्वरेणात्यंतपरोक्षेण निर्मितत्वमनुमीयते भवता तथा परैरपि विज्ञानं नीलाद्यर्थाकारविशिष्टं कार्यमभिसंवेद्य नीलाद्यनुमीयत इति समं पश्यामः । यथा च काचाद्यंतरितार्थे प्रत्यक्षता व्यवहारो विभ्रमवशादेवं बहिरर्थेपीति कुतो मतांतरं निराक्रियते १ ।
जिस ही प्रकार इस ईश्वरसिद्धि के अवसरपर हम आदि साधारण जीवोंद्वारा बढिया भी बनाये गये घट, पट, रोटी, बर्तन आदिसे विभिन्न जातिके शरीर, सूर्य, वृक्ष, पृथ्वी, आदि विलक्षण कार्यो को देखकर उनका अत्यन्त परोक्ष ईश्वरकरके निर्मितपना अनुमान द्वारा जान लिया गया आप वैशेषिकोंने माना है, उसी प्रकार अन्य बौद्धोंकरके भी नील, पीत आदिक अर्थोके आकार से विशिष्ट हो रहे विज्ञानस्वरूप कार्यको चारो ओर होता हुआ देखकर नील आदिक अर्थोका अनुमान कर लिया जाता है । इस ढंगको हम जैन तुम बौद्ध और वैशेषिकोंके यहां समानरूपसे हो रहा देख रहे हैं। और जिस प्रकार काच, अभ्रक, आदिसे व्यवहित हो रहे अर्थ में उसी अर्थ के प्रत्यक्ष हो जानेपनका व्यवहार वैशेषिकोंके यहां भ्रान्तिके वशसे हो रहा हैं, इसी प्रकार विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धोंके यहां बहिरंग अर्थमें भी भ्रमवश ज्ञान हो रहा मान लिया जावेगा। इस प्रकार तुम वैशेषिक उन बौद्धोंके दूसरे मतका निराकरण कैसे कर सकोगे ? अर्थात् कथमपि नहीं ।
प्रत्यक्षेणाप्रबाधेन बहिरर्थस्य दर्शनम् ।
ज्ञानस्यांतः प्रसिद्धं चेन्नान्यथा परिकल्प्यते ॥ ३० ॥ काचाद्यंतरितार्थेपि समानमिदमुत्तरं । काचादेर्भिन्नदेशस्य तस्याबाधं विनिश्वयात् ॥ ३१ ॥