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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
अप्रसिद्ध है । इस कारण यहां साध्यका अर्थ यही है, अप्राप्त अर्थका ज्ञान करा देनेकी कारणशक्तिसे सहितपनेको ही अप्राप्यकारीपनकी इष्टि की गयी है । अतः शक्य, अप्रसिद्ध, और इष्ट ऐसा साध्य अप्राप्यकारीपन है । तथा फिर स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष द्वारा प्रसिद्ध हो रहे अन्तरितार्थ ग्रहणको हेतुस्वरूपका कथन किया है । देशान्तरवर्ती पदार्थका चक्षुद्वारा ग्रहण सबको स्वसंवेदनसे सिद्ध हो रहा है । अतः यह दोनों प्रतिवादियोंके यहां प्रसिद्ध हो रहा हेतु है ।
ननु च काचायंतरितार्थस्य प्राप्तस्यैव चक्षुषा परिच्छेदादसिद्धो हेतुरित्याशंका परिहन्नाह । ___ वैशेषिककी ओरसे पुनः शंका उठायी जाती है कि काच, अभ्रक, आदिकसे देशव्यवहित हो रहे पदार्थोके साथ चक्षुका सम्बन्ध हो चुकनेपर ही उनका चक्षु द्वारा परिच्छेद होता है । अतः चक्षुको अप्राप्यकारित्व सिद्ध करनेमें दिया गया काचार्थतरित अर्थग्रहण हेतु पक्षमें नहीं वर्तने के कारण असिद्ध हेत्वाभास है । इस प्रकारकी आशंकाका परिहार करते हुये श्रीविद्यानन्द आचार्य स्पष्ट समाधान
विभज्य स्फटिकादींश्चेत्कथंचिच्चक्षुरंशवः। प्राप्नुवंस्तूलराश्यादीनश्वरानेति चाद्भतम् ॥ १७ ॥
स्फटिक, शीशी, अभरक आदिक अतिकठोर पदार्थोंको कथंचित् तोड फोडकर - चक्षुकी किरणें भीतर अर्थके साथ प्राप्त हो चुकी हैं, किन्तु नाशशील अतिकोमल रुईकी राशि, समल. जल, मांडको भेदकर भीतर घुसकर उनसे व्यवहित हो रहे मनुष्य, रुपया, भाण्डतल आदिका चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं कराता है । यह बडे आश्चर्यकी बात है। अर्थात् जो स्फटिक लोहेकी छेनी करके भी बडे परिश्रमसे कटता है, उसको यदि वैशेषिकोंके यहां चक्षुकी तैजस किरणें तोड फोडकर भीतर घुस जाती मानी हैं, तो कोमल रुई, मोम, कीचडमें तो बडी सुलभतासे वे घुसकर उनके नीचे रखे हुये पदार्थका प्रत्यक्ष कर लेंगी। भला द्रव, नरम, पदार्थको भेदनेमें वे क्यों कृपा करने लगी !
निष्ठुरस्थिरस्वभावान् स्फटिकानि विभज्य नयनरश्मयः प्रकाशयंति न पुनर्मुदुनाशिखभावांस्तूलराश्यादीनिति किमत्यद्भुतमाश्रित्य हेतोरसिद्धतामुद्भावयंतः कथं स्वस्था:?
अतीव कठिन होकर बहुत दिनतक ठहरने स्वरूप स्थिर स्वभाववाले स्फटिक, हीरा, आदि पदार्थोंको चीरकर उनसे व्यवहित हो रहे पदार्थोके साथ भीतर संयुक्त होकर चक्षु किरणें उनका प्रकाश करा देती हैं अथवा स्फटिक आदिमें घुसकर स्फटिक आदिके मध्यभाग या तलभागको प्रकाश देती हैं, किन्तु फिर अधिक मृदु और अल्पकालमें नाश होनेवाले स्वभावको धार रहे रूई पिण्ड, शिरीष पुष्प-समुदाय, दुग्ध, आदिक पदार्थोको नहीं भेदकर इनसे व्यवहित हो रहे