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तलार्थचिन्तामणिः
किं वदनुमान पक्षस्य बाधकमित्याह।
हमारे पक्षका बाधक वह अनुमान कौनसा है ! भला बताओ तो सही, इस प्रकार वैशेषिकोंकी जिज्ञासा होनेपर आचार्य महाराज उस अनुमानको स्पष्ट कहते हैं।
तत्राप्रातिपरिच्छेदि चक्षुः स्पृष्टानवग्रहात् ।
अन्यथा तदसंभूतेाणादरिव सर्वथा ॥११॥
चक्षु ( पक्ष ) जिस पदार्थके साथ चक्षुकी प्राप्ति नहीं है, उस अप्राप्त अर्थकी क्षति करानेबाली है ( साध्य ) । सर्वथा छूये जा रहे अंजन, पलक, कामलदोष, आदिका अवग्रहबान करानेवाली नहीं होनेसे (हेतु ) अन्यथा यानी अप्राप्य अर्थक परिच्छेदीको माने विना चक्षुको वह स्पृष्ट पदार्थका अवग्रह नहीं होना सर्वथा असम्भव है, जैसे कि नासिका, रसना आदि इन्द्रियोंको अप्राप्त अर्थ परिच्छेदी नहीं होनेपर ही स्पृष्टका अनवग्रह नहीं है, अर्थात्-जो इन्द्रियां प्राप्त वर्षकी अप्ति कराती हैं, वे छ्ये हुये अर्थका अवग्रह अवश्य कराती हैं, ( व्यतिरेक दृष्टांत )।
केवळव्यतिरेकानुमानमन्यथानुपपत्त्येकलक्षणयोगादुपपन्नं पक्षस्य बाधकमिति भावः ।
साध्याभावके व्यापकीभूत अमावका प्रतियोगीपना न्यतिरेकन्याप्ति है । उस केवळ व्यतिरेकव्याप्तिको धारनेवाले हेतुसे उत्पन्न हुआ यह आप वैशेषिकोंके मन्तव्य अनुसार माना गया केवलव्यतिरेकी ऐसा और हमारे माने गये अन्यथानुपपत्ति नासक एक लक्षणवाले हेतुके योगसे सिद्ध हो रहा अनुमान उस चक्षुके प्राप्यकारीपनको साधनेवाले पक्षका बाधक हो जाता है, यह हमारा तात्पर्य है।
अत्र हेतोरसिद्धतामाशंक्य परिहरनाह। .
इस केवटव्यतिरेकी अनुमानमें दिये गये हेतुके असिद्धपनकी आशंका कर. पुनः उसका परिहार करते हुये आचार्य महाराज उत्तर कहते हैं। अर्थात्-चक्षुःखरूप पक्षमें स्पृष्ट पदार्थका भवमह नहीं करनारूप हेतु नहीं रहता है, यह नहीं समझना। कपमपि हमारा हेतु भसिद्ध हेत्वामास नहीं है । देखिये
चक्षुषा शक्तिरूपेण तारकागतमंजनं । न स्पृष्टमिति तद्धेतोरसिद्धत्वमिहोच्यते ॥ १२॥ शक्तिः शक्तिमतोन्यत्र तिष्ठतार्थेन युज्यते । तत्रस्थेन तु नैवेति कोन्यो ब्याजडात्मनः ॥ १३॥