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तत्वार्थचिन्तामणिः
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है । जैसा ही चाण्डालके शिरपर सींगोंका अभाव है, ऐसा ही राजा, सम्राट्, जैन,. ब्राह्मण, मुनि महाराजके उत्तम अंगपर भी विषाणोंका अभाव है । अभावमें कोई अन्तर नहीं है। इस स्पष्ट कथन करने लज्जा और अपमानकी कोई बात नहीं है । रत्नमें और डेलमें ज्ञानका अभाव एकसा है। अतः अप्राप्यकारी इन्द्रियोंसे अवग्रह एकसा बनेगा। यों अगुरुलघुगुणद्वारा सूक्ष्ममेद सर्वत्र फैल रहा है। उस केवलान्वयी भेदको कौन टाल सकता है ! कोई भी नहीं ।
कथमवग्रहाद्युत्पचौ सा कारणमिति चेत् तस्यां तत्मादुर्भावानुभवात् निमित्तमात्रखोपपत्तेः प्राप्तिवत् प्रधानं तु कारणं स्वावरणक्षयोपशम एवेति न किंचन विरुद्धमुत्पश्यामः ।
आप जैन उस प्रसज्यरूप अप्राप्तिको अवग्रह आदि ज्ञानोंकी उत्पत्तिमें कारण कैसे कह देते हो ? इस प्रकार प्रश्न करनेपर तो हम यही उत्तर देंगे कि उस अप्राप्तिके होनेपर उन अवग्रह आदिकोंकी उत्पत्ति होनेका अनुभव हो रहा है । अतः सामान्यरूपसे केवल निमित्तपना अप्राप्तिको बन जाता है। जैसे कि प्राप्यकारी चार इन्द्रियोंद्वारा अवग्रह आदि उत्पन्न होनेमें प्राप्तिको सामान्य निमित्तपना बन जाता है। हां, अवग्रह. आदि ज्ञानोंकी उत्पत्तिमें प्रधानकारण तो अपने अपने आवरण कर्मीका क्षयोपशम ही है । इस प्रकार सिद्धान्त करनेमें हम किसी विरुद्धदोषको नहीं देख रहे हैं । पुण्य और पाप या अयस्कांत जैसे पदार्थको नहीं प्राप्त कर ही खींच लेते हैं । तद्वत् चक्षु और मन इन्द्रियां अप्राप्त अर्थको विषय कर लेती हैं। कोई विरोध नहीं है।
. . अत्र परस्य चक्षुषि प्राप्यकारित्वसाधनमनूद्य दूषयबाह। . - इस प्रकरणमें दूसरे विद्वान् वैशेषिकोंके चक्षुमें प्राप्यकारीपनके साधनको अनुवाद कर दूषित कराते हुये आचार्य महाराज स्पष्ट विवेचन कर कहते हैं ।
चक्षुः प्राप्तपरिच्छेदकारणं बहिरिन्द्रियात् ।
स्पर्शनादिवदित्येके तन्न पक्षस्य बाधनात् ॥ ८॥ __ चक्षु ( पक्ष ) अपने साथ संबद्ध हो चुके अर्थकी परिच्छित्तिका कारण है ( साध्य ) बाह्य इन्द्रिय होनेसे ( हेतु ) स्पर्शन, रसना, आदि इन्द्रियों के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) इस प्रकार कोई एक वैशेषिक या नैयायिक मान रहे हैं। उनका वइ मन्तव्य ठीक नहीं है। क्योंकि प्रतिज्ञा वाक्यकी प्रमाणोंद्वारा बाधा उपस्थित हो जानेसे, बहिरिन्द्रियत्वहेतु कालात्ययापदिष्ट है । सभी आंखोंवाले जीव दूरवर्ती पदार्थों को ही देखते हैं। प्रत्युत आंखसे चुपटा दिया गया पदार्थ तो दीखता भी नहीं है।
बाह्यं चक्षुर्यदा तावत् कृष्णतारादि दृश्यताम् । प्राप्तं प्रत्यक्षतो बाधात् तस्यार्थाप्राविवेदिनः ॥९॥