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तत्वार्थचिन्तामणिः
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नहीं है । दूरवर्ती वृक्षके इन्द्रियजन्य ज्ञानको भी कथंचित् अस्पष्टपना व्यवस्थित किया है । स्वांशको स्वसम्वेदन प्रत्यक्षद्वारा जानने में सभी ज्ञान स्पष्ट हैं । एतावता व्यंजनावग्रह अपने विषयको भी जानने में स्पष्ट नहीं हो सकता है । स्पष्टपना, अस्पष्टपना, अर्थका धर्म नहीं है । किन्तु स्वकीय तादृश क्षयोपशम के अनुसार ज्ञानकी गांठके वे धर्म है । नैयायिक या वैशेषिकों के कथन अनुसार इन्द्रिय और आलोक से ज्ञानका स्पष्टपा और अस्पष्टपन व्यवस्थित नहीं है । प्रकाशक पदार्थकी योग्यता अनुसार प्रकाश्य अर्थमें स्पष्टपना अस्पष्टपना व्यवहृत हो जाता है । घनांगुलके असंख्यात्तवें भाग और संख्यातवें भाग परिमाण लम्बी चौडी, पौद्गलिक या आत्मप्रदेशस्वरूप द्रव्येन्द्रियोंसे अतिरिक्त लब्धि, उपयोगपर्यायस्वरूप भावइन्द्रियां भी हैं । प्रत्येक कार्य में अंतरंग कारणोंकी आवश्यकता पडती है । मोटापन, सौन्दर्य, लावण्य, धनवत्ता, जैसे विद्वत्ता में प्रयोजक नहीं हैं, उसी प्रकार इन्द्रिय, आलोक, उद्भूतरूप, महत्त्व, अर्थ, ये ज्ञानमें विशदपने के प्रतिष्ठापक नहीं हैं । अस्पष्ट और स्पष्ट क्षयोपशम या स्पष्ट क्षयके अनुसार ज्ञानका स्पष्टत्व, अस्पष्टत्व नियत हो रहा है। अन्य कोई उनका निर्दोष कारण नहीं है ।
शब्दादिजातधर्माणामव्यक्तस्य च धर्मिणः ।
सामान्यार्थप्रकाशी स्याद् व्यंजनावग्रहोऽस्फुटं ॥ १ ॥
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उक्त सूत्र अनुसार सम्पूर्ण इन्द्रियोंके द्वारा सामान्यरूपकरके व्यंजनावग्रह हो जानेका प्रसंग प्राप्त होनेपर जिन इन्द्रियोंसे व्यंजनावग्रह होनेका सर्वथा असम्भव है, उन दो इन्द्रियोंद्वारा व्यंजनावग्रहका निषेध करनेके लिये श्रीउमास्वामी महाराज नवीन सूत्र रचते हैं ।
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्यां ॥ १९॥
चक्षु इन्द्रिय और अनिन्द्रिय यानी मनकरके व्यंजनावग्रह नहीं होता है। शेष चार इन्द्रियोंसे ही होता है । ज्ञानमें जितने झगडे टंटों, उपाधियोंका आधिक्य होगा उतना ही ज्ञान मन्द होता जायगा । चक्षु और मन ज्ञान करानेमें अर्थके साथ प्राप्ति होनेका पुंछल्ला नहीं लगाते हैं । अतः वे छोटेसे छोटे ज्ञानको भी अस्पष्ट अवग्रहरूप नहीं बना पाते हैं। हाथीका छोटासा
भी प्रास मनुष्य के बहुत बड़े प्राससे कहीं अधिक होता है । अतः चक्षु और मनके द्वारा हुआ ज्ञान व्यक्त अर्थका ही होगा, अव्यक्तका नहीं ।
किमवग्रहादीनां सर्वेषां प्रतिषेधार्थमिदमाहोस्विद् व्यंजनावग्रहस्यैवेति शंकायामिदमाचष्टे ।