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तत्वार्थचिन्तामणिः
होते हुये अस्पष्ट प्रतिमासरूप हो रहे माने गये हैं। किन्तु प्रकरणमें दूरवृक्षका बान तो स्पष्ट प्रतिमासके अनन्तर हो रहा अस्पष्टप्रतिभासरूप नहीं है । और यह ज्ञान परम्परासे भी मतिज्ञानपूर्वक नहीं है । जैसे कि परार्थानुमानमें कर्ण इन्द्रियद्वारा आप्तके शब्दको सुनकर हेतुका ज्ञानस्वरूप पहिला श्रुतज्ञान उठाया जाता है । पीछे उस श्रुतज्ञानसे साध्यज्ञानरूप दूसरा श्रुतज्ञान हो जाता है। इस दूसरे श्रुतज्ञानमें परम्परासे मतिज्ञान पूर्ववर्ती रह चुका है। किन्तु यहां दूरवृक्ष आदिके ज्ञानमें परम्परासे मतिज्ञान कारण नहीं है । अतः लिङ्ग, वाच्य, आदिके श्रुतज्ञानके पूर्वकपनेकरके उस दूरवृक्ष आदि ज्ञानका अनुभव नहीं होता है । पहिले वृक्ष आदिका साक्षात्कार कर पीछे यों निरूपण किया जाता है कि " यह वृक्ष आम्रका होना चाहिये " " यह चालीस वर्षका पुराना वृक्ष है" इस वृक्षपर रातको पक्षी निवास करते होंगे “ यह वृक्ष छोटी आंधीसे नहीं टूट सकता है " इत्यादि प्रकारके अविशद विचार जैसे इन्द्रियोंकी नहीं अपेक्षा कर यहां हो रहे हैं । तिस प्रकारके विचार एकदम दूरसे वृक्षको देखनेपर नहीं अनुभूत हो रहे हैं, जिससे कि हम उसको श्रुतज्ञान मान लेवें । हां, श्रुतज्ञान या स्मरणज्ञान आदि परोक्षज्ञानोंकी अपेक्षासे तो वह दूरवर्ती वृक्षका ज्ञान स्पष्ट है । क्योंकि सामान्यरूपसे सन्निवेश (रचना) ऊंचाई, स्थूलरंग, एकत्व संख्या, पृथक्पना, परत्व आदिका तो विशद प्रतिभास हो रहा है। श्रुतज्ञानमें तो संकेतस्मरण आदि मध्यवर्ती अपेक्षणीय प्रतीतियोंका व्यवधान पड जानेसे विशद प्रतिभास नहीं हो पाता है । हां, अधिक निकटवर्ती वृक्ष, हाथी, आदिके प्रतिमासकी अपेक्षासे तो अतिशय दूरवर्ती वृक्ष, कुटी आदिके प्रतिभासको अस्पष्टपना है । वह ज्ञान इन्द्रियोंसे जन्य भी है। इस कारण प्रकरणप्राप्त इन्द्रियजन्यपन हेतुका इस दूरवर्ती वृक्षके अस्पष्ट ज्ञानसे छठी कारिकाद्वारा ब्यभिचार दोष उठाना हमारा युक्त ही है।
अपर प्राह । स्पष्टमेव सर्वविज्ञानं खविषयेन्यस्य तब्यवस्थापकत्वायोगादक्षपतिमा. सनवत् । ततो नास्पष्टो व्यंजनावग्रह इति नैव मन्येत स्पष्टास्पष्टावभासयोरबाधितवपुषोः स्वयं सर्वस्यानुभवात् ।
कोई दूसरा विद्वान् यों कह रहा है कि सम्पूर्ण विज्ञान (पक्ष) स्पष्ट ही होते हैं ( साध्य) क्योंकि अपने अपने विषयको जानने में अन्य किसीको भी उन ज्ञानोंकी व्यवस्था करा देनेपनका योग नहीं है ( हेतु ) जैसे कि इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको स्वयं अपने विषयका व्यवस्थापकपना होनेसे स्पष्टपना नियत है ( दृष्टान्त ) । तिस कारण व्यंजनावग्रह मतिज्ञान भी अविशद नहीं है, स्पष्ट ही है। इस प्रकार माननपर तो आचार्य कहते हैं कि यह नहीं नहीं मानना चाहिये। क्योंकि बाधाको नहीं प्राप्त हो रहे हैं डील जिनके, ऐसे स्पष्ट और अस्पष्ट प्रतिमासोंका सम्पूर्ण प्राणियोंको स्वयं अनुभव हो रहा है। अर्थात्-व्यंजनावग्रह, स्मरण, अनुमान, आगम, आदि ज्ञानोंको अन्य प्रतीतियोंका व्यवधान पडजानेके कारण अविशदपना अपने अस्पष्ट आवरणक्षयोपशमके अधीन होता हुआ अनुभूत हो रहा
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