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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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व्यंजनावग्रह पक्ष में स्पष्टत्वको साध्य करनेपर इन्द्रियजन्यत्वपन हेतुका उस दूरवर्ती वृक्षकेज्ञान या दिनमें उल्लूक. आदिके ज्ञानकरके व्यभिचारदोष नहीं हो सकता है। भावार्थ छटी कारिका में दूरवर्ती वृक्षके ज्ञानकी अस्पष्टता देखनेके कारण व्यभिचार हो जानेसे अध्यक्षपनेको स्पष्टपनेके साथ व्याप्ति रखनेवाला नहीं माना गया था और सातवीं कारिकाद्वारा तामसपक्षियोंका दिनमें सूर्य किरणोंमें भ्रमरचरण, सदृशज्ञान हो जानेसे प्रत्यक्षपनेको विशेष अंशकी विषयतासे भी व्याप्त नहीं माना गया था । किन्तु जब वे ज्ञान हमने इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुये नहीं इष्ट किये हैं, तो उनमें प्रत्यक्षपना ही नहीं रहा । ऐसी दशामें हेतुके नहीं ठहरनेपरं उक्त व्यभिचारदोष हमारे ऊपर नहीं लगते हैं। हां, प्रकरणप्राप्त व्यंजनावग्रह तो इन्द्रियोंसे जन्य है । अतः अर्थावग्रह के समान स्पष्टरूप से विशेष अंशोंको विषय करनेवाला मान लेना चाहिये । यह चौथी वार्तिकद्वारा उठाई गयी हमारी शंका खडी रहती है । इस प्रकार कोई वैशेषिकका एकदेशी अर्धशिष्य कह रहा है । अब आचार्य महाराज उत्तर कहते हैं ।
तन्न युक्त्यागमाविरुद्धं दविष्ठपादपा दिज्ञानमक्षजमक्षान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् सन्निकृष्टपादपादिविज्ञानवत् । श्रुतज्ञानं वा न भवति साक्षात्परंपरया वा मतिपूर्वकत्वाभावात् तद्वदेवेति युक्तिविरुद्धमागमविरुद्धं च तस्य श्रुतज्ञानत्वं यतो धीमद्भिरनुभूयते ।
वह किसीका कहना युक्ति और आगमसे अविरुद्ध नहीं है । दूरवर्ती वृक्षके देखने को और दिनमें उलूक आदिकके देखनेको प्रत्यक्ष नहीं मानना यह मत, अनुमान और आगमसे विरुद्ध पडता है | देखिये | अधिक दूर वर्त्त रहे वृक्ष, मढैया, घोडा, आदिका ज्ञान ( पक्ष ) इन्द्रियों से जन्य है ( साध्य ) । इन्द्रियोंके साथ अन्वय, व्यतिरेकका अनुविधान करनेवाला होनेसे ( हेतु ) यानी इन्द्रियों के होनेपर वह ज्ञान होता है ( अन्वय) इन्द्रियोंके नहीं होनेपर दूरसे वृक्षका ज्ञान या दिनमें उल्लूको ज्ञान नहीं हो पाते हैं (व्यतिरेक ) जैसे कि निकटदेशके वृक्ष, घोडा, मनुष्य, आदिका विशेषज्ञान इन्द्रियोंके साथ अन्वय, व्यतिरेकको अनुविधान करनेवाला होनेसे इन्द्रियजन्य है (अन्वदृष्टान्त ) तत्र तो ये ज्ञान प्रत्यक्षस्वरूप आपको भी मान लेने चाहिये । वस्तुतः विचारा जाय तो हम जैनोंके यहां उक्त ज्ञान भले ही प्रत्यक्ष नहीं होवें । क्योंकि " आये परोक्षम् ” सूत्रद्वारा इन्द्रिय, अनिन्द्रियजन्य मतिज्ञानको परोक्ष माना है । किन्तु वैशेषिकों के यहां इन्द्रियजन्यज्ञान तो बडी सुलभतासे प्रत्यक्ष हो जाता है । ये उक्त ज्ञान श्रुतज्ञान तो कैसे भी नहीं हो पाते हैं ( प्रतिज्ञा ) अव्यवहित अथवा व्यवहितरूप करके भी मतिपूर्वकपना नहीं होनेसे ( हेतु ) उस ही के समान - यानी अतिनिकटवर्त्ती वृक्षके ज्ञान समान ( दृष्टान्त ) अर्थात् कोई आदिके श्रुतज्ञान तो साक्षात् मतिज्ञानको पूर्व मानकर उत्पन्न होते हैं। और कोई श्रुतज्ञानजन्य दूसरे श्रुतज्ञान तो परम्पराद्वारा मतिपूर्वक हो रहे हैं। किन्तु इन दूरवर्ती वृक्ष आदिके ज्ञानों के पूर्वमें तो मतिज्ञान कथमपि
इस
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