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तत्वार्यश्लोकवार्तिके .
ऊपर कहीं दूर जाकर भी ठहरना नहीं होनेके कारण अनवस्था दोष लागू होगा ५ जब कि वस्तुमें भाईचारेके नातेसे भेद अभेदके नियामक दोनों धर्म रहते हैं, तो किस धर्मसे भेद माना जाय ? और किससे अभेद माना जाय ! इस प्रकार संशय दोष बना रहेगा ६ ऐसी अव्यवस्थित दशामें वस्तुकी निर्णीतप्रतिपत्ति नहीं हो सकेगी। यह अप्रतिपत्ति दोष हुआ ७ तब तो अनिर्णीत वस्तुका या सुन्द, उपसुन्द न्यायअनुसार दो विरुद्ध धर्मोके झगडेमें मार डाली जा चुकी वस्तुका अभाव ही कहना पडता है। ८ इन आठ दोषोंकी कथमपि खिचडी या खिच्चरके समान भेदाभेद उभय आत्मकरूपसे प्रतीत की जा रही वस्तुमें सम्भावना नहीं है। प्रमाणसे जान लिये गये पदार्थमें कोई दोष नहीं आते हैं । यदि वे किसी प्रकार आधमकें तो गुण होकर माने जाते हैं। मुखके ऊपर नाक समस्थलमें नहीं है। किन्तु अंगुलभर उठी हुयी है । अतः यह नाक ऊंची रहना गुणस्वरूप हो गया। जब कि एक दूसरेके सहारेपर झुका करके दो लकडी खडी कर दी गयीं प्रत्यक्ष दीख रही हैं । या आकाशमें पतंगके सहारे डोर और डोरके सहारे पतंग उड रही दीखती है, तो ऐसी दशामें बिचारे अन्योन्याश्रय दोषको अवकाश ही नहीं मिल पाता है। वह गुण होकर वस्तुकी शरणमें आ गिरता है । अतः धर्मधर्मियोंमें उस ही स्वरूपसे अन्यपना और उस ही स्वरूपसे अनन्यपना नहीं माना गया है।
किं तर्हि । कथंचिदन्यत्वमनन्यत्वं च यथाप्रतीतिजात्यंतरमविरुद्ध चित्रविज्ञानवसामान्यविशेषवद्वा सवाद्यात्मकैकपधानवद्वा चित्रपटवद्वेत्युक्तमायं । ... यदि एकान्तवादि यों कहें कि आप जैन विद्वान् धर्म और धर्मीका भेद नहीं मानते हैं, अभेद भी नहीं मानते हैं । तथा उस एक ही रूपसे भेद, अभेद दोनोंको नहीं मानते हैं, तो धर्मधर्मीका कैसा क्या मानते हैं ? स्पष्ट क्यों नहीं कहते हो । केवल नहीं नहीं कह देनेसे तो कार्य नहीं चलता है। इस प्रकार तीव्र जिज्ञासा होनेपर अब आचार्य उत्तर कहते हैं कि प्रती. तिका अतिक्रमण नहीं कर धर्म और धर्मीका कथंचित् भेद और अभेद माना गया है । भेद अभेद की जातियोंसे यह कथंचित भेदअभेद तीसरी जातिका होकर अविरुद्ध है। जैसे कि बौद्धोंने अनेक आकारोंसे मिला हुआ एक चित्रविज्ञान माना है। चित्रज्ञानमें एक आकार भी नहीं है और नील पीत आदि अनेक आकार भी स्वतंत्र उसमें नहीं हैं। किन्तु एकाकार अनेकाकार दोनोंसे तीसरी जातिका ही न्यारा आकार चित्रज्ञानमें है। अथवा वैशेषिकोंने सामान्यस्वरूप व्यापक जातियोंकी विशेषरूप व्याप्य जातियां मानी है । सत्ता, द्रव्यत्व आदि अधिक देशवर्ती व्यापक जातियोंकी अल्पदेश वृत्ति पृथ्वीत्व, वटत्व आदि व्याष्य जातियां इष्ट की हैं । पृथ्वीत्वमें घटत्व, • पटत्वकी अपेक्षा सामान्यपना मी है और सत्ता, द्रव्यत्यकी अपेक्षा विशेषपना भी है । यह सामान्य विशेषपना तो सत्ताके केवल सामान्यसे और घटादि व्यक्तियोंमें रहनेवाले घटत्व, पटत्वके विशेषसे