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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
रहा वह नैयायिक यों पूंछने योग्य है कि भाई बहु, बहुविध आदिक अर्थों में वर्त रहा अवग्रह, ईहा आदि स्वरूप यह ज्ञान क्या स्मृतिकी नहीं अपेक्षा रखनेवाली इन्द्रियकरके जाना गया है ? अथवा क्या स्मृतिकी सहायताको धारनेवाली इन्द्रियकरके उत्पन्न किया गया है ? पहिला पक्ष लेनेपर तो स्याद्वादियों का मत प्रसिद्ध हो जाता है । स्याद्वादसिद्धान्त में बहु आदिक अर्थोके ज्ञानको ही अवग्रह, ईहा आदि ज्ञानपनेकरके व्यवस्थित किया है । अर्थात् — स्मृतिकी अपेक्षा नहीं कर इन्द्रियोंसे बहुत, अल्पविध, आदि अनेक अर्थोका एक ज्ञान हो जाता है । यह बात बालक, पशु, पक्षियोंतक में प्रसिद्ध है ।
द्वितीयकल्पनायां तु प्रतीतिविरोधतः स्वयमननुभूतपूर्वेपि बहाद्यर्थेवग्रहादिप्रतीतेः स्मृतिसहायेंद्रियजन्यत्वासंभवात् तत्र स्मृतेरनुदयात् तस्याः स्वयमनुभूतार्थ एव प्रवर्तनाद - न्यथातिप्रसंगात् । ततो नेदं बद्दाद्यवग्रहादिज्ञानमवभासनाद्भिन्नं शद्धज्ञानवत्स्मृतिसापेक्षं ग्रहणमिति मंतव्यं । यतो युगपदनेकांतार्थे न स्यात् ।
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प्रवृत्ति मानी गयी है ।
दूसरे पक्षकी कल्पना करनेपर तो प्रतीतियोंसे विरोध हो जानेके कारण वह पक्ष ग्राह्य नहीं है । जो अर्थ आजतक पहिले कभी स्वयं अनुभवमें नहीं आये हैं, उन बहु आदिक अर्थों में भी उत्पन्न हो रहे अवग्रह आदिक ज्ञानोंकी प्रतीति हो रही है । अपूर्व अर्थोंमें स्मृतिकी सहायता प्राप्त इन्द्रियोंसे जन्यपना तो असम्भव है । क्योंकि उस अदृष्टपूर्व अर्थमें स्मृतिज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती है । कारण कि स्वयं पहिले प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, आदि ज्ञानोंसे अनुभव किये जा चुके अर्थों में ही तत् इत्याकारा 66 22 वह था इस विकल्पवाली उस स्मृतिकी अन्यथा यानी नहीं अनुभूत किये अर्थमें भी यदि स्मृतिकी प्रवृत्ति मानी जायगी तो अतिप्रसंग हो जायगा । अर्थात् - अनन्त अज्ञात पदार्थोंकी धारणाज्ञान नामक संस्कारके विना भी स्मृति हो जानी चाहिये, जो कि नहीं होती है । तिस कारण सिद्ध हुआ कि यह बहु आदिक अनेक अर्थोके अवग्रह आदिक ज्ञान प्रत्येक प्रत्येक अर्थमें ज्ञान रूपसे भिन्न नहीं हैं। जिससे कि अनेक अर्थोंमें या अनेक धर्मस्वरूप एक अर्थमें इप्ति न करा सकें और शद्वजन्य श्रुतज्ञान जैसे संकेत स्मरणकी अपेक्षा सहित हो रहा अर्थीका ग्रहण है । इसके समान अवग्रह आदि ज्ञान नहीं हैं । अवग्रह आदि तो स्मरणकी अपेक्षा विना ही हो जाते हैं । यह मान लेना चाहिये । ऐसी दशामें अनेक धर्म आत्मक अर्थ या अनेक अर्थों में युगपत् अवग्रह आदिक प्रत्येक ज्ञानकी प्रवृत्ति हो जाती है 1
भवतु नामधारणापर्येवमवभासनं तत्र न पुनः स्मरणादिकं विरोधादिति मन्यमानं प्रत्याह ।
उन बहु, बहुविध, आदि अर्थोंमें धारणापर्यन्त यानी अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणातक ज्ञान भलें ही हो जाओ, किन्तु फिर स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, आदिक ज्ञान तो उन बहु आदिक विषयोंमें नहीं हो सकेंगे । क्योंकि विरोध दोष आता है । अनेकोंकी स्मृति या संज्ञा करनेपर