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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
भावार्थ-जगत्के सम्पूर्ण पदार्थ यधपि अनेक स्वभाववाले हैं। दही और गुडका मिलकर जैसे तीसरी जातिका खाद बन जाता है, हल्दी और चूनाको मिलाकर जैसे तीसरा रंग बन जाता है, इसी प्रकार एक वस्तुमें अनेक स्वभावोंका तादात्म्यसम्बन्ध हो जानेपर तीसरी ही जातिकी वस्तु सिद्ध हो जाती है । अतः इस ढंगसे सम्पूर्ण वस्तु चित्र हैं। फिर भी विशेष प्रयोजनको साधनेवाली होनेसे किसी चित्ररंगवाली या अत्यासन अनेक स्वभाववाली वस्तुमें चित्रपनेका व्यवहार किया जाता है। खाते, पीते, खेलते सभी छोकरे प्रायः उपद्रवी होते हैं, तो भी किसी विशेष चंचल लडकेको हो नटखटी कह दिया जाता है। या बुद्धिमान सब जीवों से किसी एक विशेष ज्ञानीको बुद्धिमान् मान लिया जाता है । प्रत्येक पदार्थसे अनेक प्रयोजन सध सकते हैं । किन्तु अर्थक्रियाके अमिलाषी जीवको उस वस्तुसे जो विशेष प्रयोजन प्राप्त करना है । तदनुसार एकपना, अनेकपना, चित्रपना, विचित्रपना, व्यवहृतकर लिया जाता है । वस्तुकी पारिणामिक भित्तिपर ही प्रयोजनसाधक व्यवहारोंका अवलम्ब है।
सिद्धेप्येकानेकखभावे जात्यंतरे सर्ववस्तुनि स्याद्वादिनां चित्रव्यवहाराहें ततोपोद्धारकल्पनया कचिदेकत्रार्थित्वादेकमिदमिति कचिदनेकार्थित्वादनेकमिदमिति व्यवहारो जनैः प्रतन्यत इति सर्वत्र सर्वदा चित्रव्यवहारपसंगतः कचित्पुनरेकानेकखभावभावार्थित्वाञ्चित्रव्यवहारोपीति नैकमेव किंचिच्चित्रं नाम यत्र नियतं वेदनं स्यात्मत्यर्थवशवर्तीति ।
एक स्वभाव और अनेक स्वभावोंको धार रही संपूर्ण वस्तुओंके तीसरी जातिवाले अनेकांत आत्मकपनकी सिद्धि हो चुकनेपर यवपि संपूर्ण ही वस्तुयें स्याद्वादियोंके यहां चित्रपनेके व्यवहार करने योग्य हैं। फिर भी एक स्वभाववाले और अनेक स्वभाववाले इन दो जातियोंसे निराले तीन जात्यन्तर वस्तुओंसे किसी विशिष्ट वस्तुकी पृथक्भाव-कल्पना करके किसी ही विशेष एक वस्तुमें अभिलाषीपना होनेके कारण यह एक है, इस प्रकार एकपनेका व्यवहार फैल रहा है। और अनेकपनकी अभिलाषा होनेके कारण किन्हीं वस्तुओंमें ये अनेक हैं । इस प्रकारका व्यवहार मनुष्यों करके अधिकतासे विस्तार दिया जाता है । तथा पुनः कहीं अनेक आकारवाली वस्तुमें युगपत् एक स्वभाव और अनेक स्वभावोंके सद्भावकी अभिलाषुकता हो जानेसे चित्रपनेका व्यवहार भी प्रसिद्ध हो रहा है । इस प्रकार संपूर्ण वस्तुओंमें सर्वदा चित्रव्यवहारकी आपत्तिका प्रसंग हो जानेके भयसे हमने यह निर्णीत कर दिया है कि विवक्षावश चित्रपनेकी प्रचुरतासे किसी ही विशेष वस्तुमें चित्रपनेका व्यवहार होता है । इस प्रकार सिद्ध हुआ कि एक ही कोई पदार्थ चित्र कथमपि नहीं है। जिसमें कि नियतरूपसे हो रहा एक ज्ञान प्रत्येक अर्थके अधीन होकर वर्तनेवाला हो सके । यानी चित्र पदार्थ किसी अपेक्षासे अनेक हैं। उनमें एक ज्ञान हो रहा है । यहांतक तेईसवीं वार्तिकका उपसंहार कर दिया है। बहुतोंको जाननेवाला एक ज्ञान हो सकता है ।