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तत्वाचिन्तामणिः
स्वार्थवित्तौ तदेवास्तु ततो ज्ञानं स एव नः । प्रत्यक्ष वा परोक्षं तज् ज्ञान द्वैविध्यमस्तु ते ॥४५॥
आत्माका प्रत्यक्ष माननेवाले भट्ट और फलज्ञानका प्रत्यक्ष माननेवाले प्रभाकर दोनों ही मीमांसक पंडित करणज्ञानको परोक्ष मानते हैं। आरमा बहिरंग घट, पट, आदि अर्थ और सुख, इच्छा, ज्ञान, आदि अन्तरंग अर्थोका ज्ञाता हूं, इस प्रकार निर्णय होजानेसे आत्माका स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे जाना गया मन अनुभूत हो रहा है, अतः कोई दोष नहीं है । भावार्थ-करणज्ञान भले ही पसेक्ष रहे, किन्तुः प्रत्यक्ष आत्मासे घट, पट, आदि अर्थोकी प्रत्यक्ष ज्ञप्ति होजावेगी कोई दोष नहीं आता है, आचार्य कहते हैं कि यदि इस प्रकार मीमांसकका मत है तो हम कहते हैं कि स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे जानलिये गये अन्तरंग प्रत्यक्षस्वरूप आत्मासे न्यारा मानागया विज्ञान भला किस कार्यको करेगा- बताओ। यानी जबामा प्रत्यक्षरूप सतत प्रतिभास रहा है तो करणज्ञान मानना व्यर्थ है, इसपर तुम मीमांतक यदि यों कहो कि कर्ता आत्माका करणके विना कर्म करनेमें व्यापार नहीं होता है, जैसे कि कुठारके विना बढई काठको नहीं फाड सकता है, इसपर तो हम जैन कहेंगे कि तब तो आत्माकी अर्थवेदनके समान वयं स्वको जाननेकी क्रिया न हो सकेगी। क्योंकि भाहोंने आत्माके प्रत्यक्ष करनेमें न्यारा करणवान माना नहीं है। यानी अर्यके वेदनमें आत्माको जैसे करण ज्ञानकी अपेक्षा है वैसे ही स्वयं अपनेको जाननेमें भी न्यारे करणज्ञानकी अपेक्षा होगी और फिर उस करणचानवाले कर्ता आत्माको भी स्वके जाननेके लिये अन्य करणवानकी आकांक्षा पडेगी, इस ढंगसे एक शरीरमें अनेक प्रमाता मानने पडेंगे और अनवस्था भी हो जायगी । यदि आत्माका स्वकी संवित्ति करनेमें स्वयं आत्मा ही करण माना जायगा, तब तो स्व और अर्थकी ज्ञप्तिमें भी वही आत्मा करण हो जाओ । इस कारण वही आत्मा तो हम स्याद्वादियोंके यहां ज्ञानस्वरूप है । और वह ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष रूपसे दो प्रकारपनेको व्यापकर धार रहा है।
न सर्वया प्रतिभासरहितत्वात् परोक्षं ज्ञानं करणत्वेन प्रतिभासनात् । केवलं कर्मत्वेनाप्रतिभासमानत्वात् परोक्षं तदुच्यत इति कश्चित् तं प्रत्युच्यते ।
सभी प्रकार प्रतिभासोंसे रहित होनेके कारण ज्ञान परोक्ष है, यह नहीं समझना । किन्तु करणपने करके उस प्रमाणज्ञानका प्रतिमास हो रहा है । हां, केवल कर्मपनेसे प्रतिभासमान नहीं होनेके कारण वह करणशान परोक्ष कहा जाता है। अर्थात्-लोकमें प्रमितिक्रियाके कर्मका प्रत्यक्ष होना माना गया है । प्रमितिके कर्ता, करण और फलज्ञानके प्रतिभासमान होते हुये भी उनका प्रत्यक्ष होना इष्ट नहीं हैं । काठ छिठता है । बढई, वसूला, छीलना, ये नहीं छिलते हैं, इस प्रकार कोई मीमांसक कह रहा है। उसके प्रति आचार्य महाराज करके समाधान वचन कहा जाता है।