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________________ तत्त्वार्थ चिन्तामणिः ४७१ इस सूत्रका सारांश। इस सूत्रभाष्यके प्रकरणोंका स्थूलरूपसे परिचय यों है कि सबसे प्रथम मतिज्ञानके निति हो चुके प्रकारोंका भेद निर्णयार्थ सूत्रका अवतार हुआ बताया है । पश्चात् अवग्रह आदिका निर्दोष लक्षण कहकर मतिज्ञानके साथ समानाधिकरणपना साधा गया है। अद्वैतवादियोंका निराकरण कर मेदवानद्वारा स्पष्ट प्रतिभास होना बताया है। सभी ज्ञान सामान्य विशेष आत्मक वस्तुको विषय करते हैं। अकेले सत् सामान्यका ही निर्बाध ज्ञान नहीं होता है। बौद्धोंका स्वलक्षण को जाननेवाला निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी पारमार्थिक नहीं है। जब कि पदार्थ अनेक धर्मस्वरूप हैं, तो आत्मा क्षयोपशमके अनुसार अवग्रह आदि द्वारा अंशी, अंश, उपाशांको यथायोग्य जानता रहता है । दर्शन उपयोगसे अवग्रह ज्ञान न्यारा है । ये अवग्रह आदिक ज्ञान सदा क्रमसे ही होते हैं। आकांक्षासे कुछ मिला हुआ ईहाज्ञान और संस्काररूप धारणाज्ञान स्वसम्वेदन प्रत्यक्षसे प्रमाणरूप जाने जा रहे हैं । आत्माका चैतन्य आत्माके अन्य गुणोंपर छाप मारता रहता है। सांख्योंका अवग्रह आदिको प्रकृतिका परिणाम मानना ठीक नहीं है। दूर पदार्थमें क्रमसे होते हुये जाने जा रहे अवग्रह आदिके समान निकट देशमें अवग्रह आदिकोंका क्रमसे होना सूक्ष्म ज्ञानियोंको अनुभूत हो रहा है। सविकल्पक अवग्रह ज्ञान प्रमाण है। उसके साक्षात् फल स्वार्थनिर्णय और परम्परासे ईहाज्ञान, हान आदि बुद्धियां हैं । प्रमाण और फलका कथंचित् भेद, अभेद, इष्ट किया है। निर्विकल्पक और सविकल्पक ज्ञानोंका या स्वलक्षण और विकल्प्य विषयोंका एकत्वाध्यवसाय होना अशक्य है । यहां विशेष विचार किया गया है। विशिष्ट क्षयोपशमके अनुसार ज्ञानमें स्पष्टता, अस्पष्टता, आ जाती हैं। इस कारण अवग्रह आदिक स्पष्ट ज्ञान हैं । सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष हो सकते हैं। हां, व्यंजनावग्रह अस्पष्ट होनेसे परोक्ष है। मन इन्द्रियसे ही ईहा नहीं होती है किंतु अन्य इन्द्रियोंसे भी ईहाज्ञान होता है । इस अवसरपर बौद्धोंके साथ अच्छी चर्चा की गई है। इंद्रिय और मनसे उत्पन्न हुये अवग्रह, ईहाज्ञान, आत्माकी क्रमसे उत्पन्न हुई भिन्न भिन्न पर्यायें हैं । किन्तु ये सब पर्यायें एक मतिज्ञानस्वरूप हैं। तभी तो तत् ऐसे उद्देश्यदलके एकवचन मतिज्ञानके साथ " अवग्रहहावायः धारणाः " इस विधेयदलके बहुषचनका सामानाधिकरण्य बन जाता है। सभी प्रतिवादियोंने भिन्न भिन्न ढंगोंसे अनेकान्तकी शरण पकडी है। संशय और विपर्ययज्ञानोंका निराकरण करता हुआ स्पष्ट अवायज्ञान है । ईहासे इतना कार्य नहीं हो सकता है । आवरणोंका विशेष अपगम हो जानेसे दृढतरज्ञान होता है। आय और धारणा कथंचित् अगृहीतग्राही हैं । श्वेताम्बर लोगोंने प्रमाणके लक्षणमें अपूर्वार्थ विशेषण नहीं डाला है। उनका अनुभव है कि सम्पूर्णपदार्थ भविष्यमें एक एक समय पीछे नवीन नवीन पर्यायोंको धारते रहते हैं । अतः सभी अपूर्वार्थ हैं । दहीको जमा हुआ कह देनेसे कोई प्रयोजन नहीं साधता है । इसपर हम दिगम्बर सम्प्रदायवालोंका कहना है कि
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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