________________
- तवार्थचिन्तामणिः
४४३
1
विशेषबातोंको कहने के लिये असत्य हो जानेकी शंका बनी रहती है । अतः उस विशेषमें ज्ञान होना पारमार्थिक नहीं है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार अद्वैतवादियों का कहना युक्तिरहित है । क्योंकि सम्पूर्ण विशेषोंसे रहित हो रहे सत्त्वस्वरूपका सर्वदा अनुभव नहीं होता है । जैसे कि सामान्यसे सर्वथा रहित हो रहे केवल विशेषस्वरूप वस्तुकी कभी भी प्रतीति नहीं होती है । किन्तु अभेद और भेदस्वरूप वस्तुमें व्यभिचारसे रहित हो रही प्रतीतिको ही पारमार्थिकपना युक्त है । दूसरे प्रकारोंसे यानी बौद्धोंके केवल विशेष अंशको जाननेवाले निर्विकल्पक दर्शनको और अद्वैत वादियों के शुद्ध सामान्यसत्ताको प्रकाशनेवाले दर्शनको तात्त्विकपना नहीं है । क्योंकि सामान्यके विना केवल उस विशेषका और विशेषके विना केवल उस सामान्यका ठहरना असम्भव है " निर्विशेषं हि समान्यं भवेत् खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि " ।
न हि सकलविशेषविकलं सन्मात्रमुपलभामहे निःसामान्यविशेषवत् सत्सामान्यविशेषात्मनो वस्तुनो दर्शनात् । न च तद्व्यभिचारोस्ति केनचित्सद्विशेषेण रहितस्य सन्मात्र - स्योपलंभेपि सद्विशेषांतररहितस्यानुपलंभनात् । ततस्तस्यैव सत्सामान्यविशेषात्मनोर्थस्याव्यभिचारित्वलक्षणं पारमार्थिकत्वं युक्तमिति तद्विधातृप्रत्यक्षं सिद्धम् ।
सम्पूर्ण विशेषोंसे सर्वथा रहित हो रहे शुद्ध सन्मात्रकों हम कभी भी नहीं देख रहे हैं । जैसे कि सामान्य से सर्वथा रीता विशेष कभी देखा नहीं जाता है । किन्तु सबको उत्पाद, व्यय, धौव्यवाले सामान्य विशेषात्मक सत् वस्तुका दर्शन होता है । उस सामान्य विशेष - आत्मक वस्तुमें कोई व्यभिचार नहीं देखा जाता है। किसी एक विशेषसत्से रहित हो रहे केवल सत्का उपलम्भ होनेपर भी सत् के अन्य विशेषोंसे रहित हो रहे सत्मात्रका तो किसीको आजतक उपलम्भ नहीं हुआ है । द्विचन्द्र ज्ञानमें एकत्व नामके विशेषका उपलम्भ नहीं है । फिर भी द्वित्व नामका विशेष प्रविष्ट हो रहा है'। भले ही वह झूठा पड जाय तथा द्विचन्द्र ज्ञानमें चन्द्रपना, प्रकाशकपना, गगनतल में स्थितपना, गोलपना, आदि विशेष धर्म तो दीख ही रहे हैं। दर्शनावरण के क्षयोपशमसे होनेवाले दर्शन उपयोगके समान कोई अद्वैतवादीका निर्विकल्पक दर्शन यदि वस्तुविशेषोंको नहीं देख सके तो इसमें वस्तुका दोष नहीं है। उन दर्शनोंकी त्रुटिको वस्तुका स्वरूप नहीं सम्भाल सकता है । चिमगादरको यदि दिनमें नहीं दीखे तो यह दोष सूर्यके ऊपर मढना ठीक नहीं है इसी प्रकार किसीको यदि सामान्य नहीं दीखे तो इससे वस्तु सामान्यरहित नहीं कही जा सकती है तलवारका आघात स्वयं अपने ऊपर करनेवाला पुरुष तलवारपर दोष नहीं लगा सकता है I प्रयोक्ताका दोष प्रयोज्यपर लगाना अन्याय है या बालकपन है । तिस कारण उस सामान्य- विशेष - आत्मक सत् पदार्थको ही अत्र्यमिचारीपनका लक्षण पारमार्थिक कहना युक्तिपूर्ण है । अतः उस सामान्य विशेष आत्मक वस्तुका विधान करनेवाला प्रत्यक्ष प्रमाणसिद्ध है । अर्थात् – 'आहुर्विधातृप्रत्यक्षं न निषेध विपश्चितः ' विद्वान् लोक प्रत्यक्षको विधान करनेवाला ही कहते हैं । प्रत्यक्ष प्रमाण
1
1