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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
अज्ञान, श्रुत, अवधि, आदिमें अतिव्याप्तिके निवारणार्थ है । अधिकारसे चले आरहे सम्यक् शब्द करके पूर्व अवधारणको पुष्टि प्राप्त होती है । सभी मतिअज्ञान दोनों निमित्तोंसे जन्य नहीं है। अतः सूत्रके प्रमेयरूप धनकी रक्षाके लिये दोनों ओरसे अवधारणरूप ताले लमा दिये गये हैं । स्वांशप्रहण और परांशत्याग करते हुये प्रायः सभी वाक्य उक्त चाहे अनुक्त अवधारणोंसे रक्षित रहते हैं।
प्रकष्टपुण्याप्तिनिदानभूता मनोहषीकावधृतात्मलाभा। विपर्ययानध्यवसायसंशीत्यज्ञान ( त्यवित्ति ) नाशाय भवेन्मतिर्नः॥१॥
अब श्री उमास्वामी मतिज्ञानके भेदोंका निरूपण करने के लिये गम्भीर सूत्रको कहते हैं।
अवग्रहहावायधारणाः ॥ १५॥ 'अवग्रह, ईहा, अवाय, और धारणा ये चार मतिज्ञानके भेद हैं । अर्थात् पूर्वसूत्रके अनुसार इन्द्रिय और मनसे ये चारों मतिज्ञान होते हैं ।
किमर्थमिदमुच्यते न तावत्तन्मतिभेदानां कथनार्य मतिः स्मृत्यादिसूत्रेण कयनात् । नापि मतेरज्ञातभेदकथनार्थ प्रमाणांतरत्वप्रसंगादिति मन्यमानं प्रत्युच्यते। - कोई तर्की सूत्रके अवतार करनेमें आपत्ति उठाता है कि यह “ अवग्रहहावायधारणाः " सूत्र किस प्रयोजनके लिये कहा जा रहा है ! यदि सबसे पहिले तुम जैन यों कहो कि उस मतिज्ञानके भेदोंको कहनेके लिये यह सूत्र है, सो तो नहीं कहना । क्योंकि मतिज्ञानके भेद तो " मतिःस्मृतिःसंज्ञाचिंताभिनिबोध इत्यनान्तरम् " इस सूत्रकरके कहे जा चुके हैं । तथा इस सूत्रका यह प्रयोजन भी नहीं है कि मतिज्ञानके अबतक नहीं जाने जा चुके भेदोंको कह दिया जाय । अर्थात्मतिज्ञानके अज्ञातभेदोंका कथन करनेके लिये भी यह सूत्र नहीं आरम्भा गया है । क्योंकि यों तो इन अवग्रह आदिकोंको मतिज्ञानसे न्यारे अन्य प्रमाणपनका प्रसंग आता है । मतिके कह दिये जा चुके मति, स्मृति, आदिक प्रकारोंमें तो इन अज्ञात भेदोंका अन्तर्भाव हो नहीं सकता है । अतः प्रत्यक्ष, परोक्षसे या मति, श्रुत, आदिसे अतिरिक्त ये अवग्रह आदिक चार ज्ञान न्यारे प्रमाण बन बैठेंगे । इस प्रकार अपने मनमें मान रहे आपादक प्रतिवादीके प्रति आचार्य महाराजद्वारा समाधान कहा जाता है।
मतिज्ञानस्य निर्णीतप्रकारस्यैकशो विदे । भिदामवग्रहत्यादिसूत्रमाहाविपर्ययम् ॥ १॥