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तत्वार्थचिन्तामणिः
सम्यक्ज्ञानकी उपलब्धि हो रही है। अतः वह सम्यक् ज्ञानका,प्रकाश मिथ्याचारित्रके कारण मिथ्याज्ञानकी निवृत्तिको करावेगा और मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति तो उस मिथ्याचारित्रकी विशेषरूपसे निवृत्त करानेवाली हो जायगी।
ननु च सम्यग्विज्ञानान्मिथ्याज्ञाननिवृत्चिर्न मिथ्याचारित्रस्य निवृत्तिका प्रादुर्भूतसम्यग्ज्ञानस्यापि पुंसोऽचारित्रप्रसिद्धः पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरमिति वचनादन्यथा तद्वयाघातादिति चेन्न, मिथ्याचारित्रस्य मिथ्यागमादिज्ञानपूर्वस्य पंचाग्निसाधनादेनिषेधत्वात् । चारित्रमोहोदये सति निवृत्तिपरिणामाभावलक्षणस्याचारित्रस्य तु निषेध्यत्वानिष्टे मोहोदयमात्रापेक्षित्वस्य तु द्वयोरप्यचारित्रमिथ्याचारित्रयोरभेदेन वचनमागमे व्यवस्थितिविरुद्धमेव मिथ्यादर्शने मिथ्याचारित्रस्यांतर्भावाच मिथ्याज्ञानवत् ॥
___ यहां शंका है कि सम्यग्ज्ञानसे मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति अवश्य हो जाती है। किन्तु मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति तो मिथ्याचारित्रकी निवृत्ति करानेवाली नहीं ठहरती है। क्योंकि जिस आत्माके सम्यग्ज्ञान उत्पन्न भी हो गया है, उसके भी चतुर्थ-गुणस्थानमें अचारित्रकी प्रसिद्धि हो रही है । " एवं पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम् " पूर्वके सम्यग्ज्ञानके लाम होनेपर भी उत्तरवर्ती चारित्र भजनीय है। अर्थात् सम्यग्ज्ञान हो जाय और चारित्र होय मी अथवा नहीं भी होय, ऐसा मूलसूत्र अनुसार बखानेगये वार्तिक शास्त्रोंमें कहा गया है। अन्यथा यानी सम्यग्ज्ञानके होनेपर सम्यक्चारित्रकी भी सिद्धि मानी जायगी तब तो उस अकलङ्कवचनका व्याघात होता है । अतः सम्यग्ज्ञानके हो जानेसे मिथ्याचारित्रका निषेध नहीं साधा जा सकता है। अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कहना । क्योंकि सम्यक्ज्ञान हेतुसे मिथ्याआगम, मिथ्याउपदेश, हिंसापोषकवेद, आदिके ज्ञानोंको कारण मानकर उत्पन्न होनेवाले पंच अनिसाधन, पेडोंपर उल्टा लटकना, एक हाथको ऊपर ही उठाये रखना, नख जटा बढा लेना, आदिक मिथ्याचारित्रोंका निषेध किया गया है । अर्थात् मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी और मिश्रप्रकृतिका उदय होनेपर हो रहे मिथ्याचारित्र या मिश्रचारित्रका सम्यग्ज्ञानसे निषेध साधा जाता है । अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण आदि चारित्रमोहनीयकर्मका उदय होते संते हो रहे निवृत्तिपरिणामोंके अमावस्वरूप अचारित्रका तो निषेध्यपना अनिष्ट है। हा सामान्यरूपसे मोहनीयकर्मके उदयकी अपेक्षा रखनेवालापनका तो अचारित्र और मिथ्याचारित्र दोनोंमें भी अभेद करके आगममें प्ररूपण कहा गया है। अथवा मिथ्याचारित्र और अचारित्रका अभेद करके कथन करना तो आगममें की गई व्यवस्थाके विरुद्ध ही पडता है । दूसरी बात यह है कि मिथ्यादर्शनमें मिथ्याज्ञानके समान मिथ्याचारित्रका अन्तर्भाव किया गया है । अतः मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति मिथ्याचारित्रको निवृत्त करावेगी ही, उत्तरवर्ती गुण भजनीय है। यह विशेषचारित्रकी अपेक्षासे कथन है। अतः अचारित्रके होते हुये भी सम्यग्ज्ञानसे मिथ्याचारित्रकी निवृत्ति जान ली जाती है। कई चतुरमनुष्य पंडित न होते हुये भी मूर्ख नहीं होते हैं।
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