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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
पूर्ववत् शबमें पूर्व और मतुप् ये दोपद हैं । पूर्वमें प्रसंग प्राप्त हो रहा होनेसे पूर्वका अर्थ पक्ष है । उससे भिन्न शेषका अर्थ अन्वयदृष्टान्तरूप सपक्ष ही माना गया है। मतुपका अर्थ योग है। उन पूर्व यानी पक्ष और शेष यानी सपक्ष इन दोनोंका जिस हेतुके योग देखा जाता है, वह पूर्ववत् शेषवत् अनुमान अच्छे ढंगसे कहा गया है । इस अनुमानका हेतु केवलान्वयी है । जैसे कि सभी पदार्थ कथन करने योग्य हैं, क्योंकि प्रमेय हैं । जैनोंके यहां कथन करने योग्य पदार्थोसे भिन्न पडा हुआ अनंतानंतगुणा अनभिलाप्य पदार्थ माना गया है । किन्तु नैयायिकोंके यहां सम्पूर्ण पदार्थाका ईश्वरकी इच्छारूप संकेत होकर निरूपण करना इष्ट किया है । अतः यहां केवलअन्वय ही मिलनेसे पूर्ववत् शेषवत्का अर्थ केवलान्वयि है । यह प्रमेयत्व हेतु पक्ष और सपक्षमें वर्त रहा है । इसपर आचार्य कहते हैं कि यदि आपका यह हेतु साध्यके अभाव होनेपर नहीं रहता है, तब तो बौद्धोंके त्रिरूपहेतुसे कोई भी विशेषता नहीं रखता है । अर्थात् पक्ष और सपक्षमें वृत्ति तो आपने मान ही लिया। किन्तु विपक्षमें व्यावृत्ति होना भी पीछेसे विकल्प उठानेपर मान लिया है । अतः त्रिरूपका खण्डन करनेसे पूर्ववत् शेषवत् हेतुका भी खण्डन हो जाता है । व्यर्थ परिश्रम क्यों करें ।
यस्य वैधर्म्यदृष्टांताधारः कश्चन विद्यते । तस्यैव व्यतिरेकोस्ति नान्यस्येति न युक्तिमत् ।। १९८ ॥ ततो वैधHदृष्टान्ते नेष्टोवश्यमिहाश्रयः । तदभावेप्यभावस्याविरोधाद्धेतुतद्वतोः ॥ १९९ ॥
नैयायिक कहते हैं जिस हेतुका वैधर्म्य दृष्टान्तरूप कोई आधार ( व्यतिरेक व्याप्तिके साधनेका सहारा ) विद्यमान है, उस हेतुके ही साध्यके न रहनेपर हेतुका न रहनारूप व्यतिरेक माना जाता है । अन्य केवलान्वयी हेतुओंका व्यतिरेक महीं है । आचार्य कहते हैं कि यह कहना तो युक्तियोंसे सहित नहीं है। क्योंकि तिस कारण वैधHदृष्टान्तमें आश्रय अवश्य होना ही चाहिये। . ऐसा यहां इष्ट नहीं किया है । हेतु और उससे सहित साध्य इन दोनोंका उस साध्यके न होनेपर हेतुके अभाव हो जानेका कोई विरोध नहीं है । खरविषाण, वन्ध्यापुत्र, आदिमें व्यतिरेक बना लिया जाता है । वे भले ही वस्तुभूत नहीं हों। तभी तो व्यतिरेक अच्छा बन गया।
केवलव्यतिरेकीष्टमनुमानं न पूर्ववत् । तथा सामान्यतो दृष्टं गमकत्वं न तस्य वः ॥२०॥
केवलान्वयीका विचारकर अब केवलव्यतिरेकीका विचार करते हैं कि जिस प्रकार केवल व्यतिरेकव्याप्तिको रखनेवाले अनुमानको पूर्ववत् अनुमान महीं इष्ट करते हो और वह अविनाभाव