________________
९९८
- तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
% 3
amannnnnnnnnnnnn.
विद्यमान ही है । ऐसी दशामें आकाश, काल, आदिको पूरा बुद्धि बल लगाकर धर्मापनकी कल्पना करनेसे क्या लाभ निकला ! अर्थात् कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ । जैसे कोई कोई पौराणिक पुरुष जगत्का आधार गौ, कछवा, शेषनागको मानकर भी पुनः आधारान्तरकी जिज्ञासाको शान्त नहीं करा सकते हैं । निश्चयनयसे पदार्थोका स्वप्रतिष्ठ रहना मानना ही संतोषप्रद है। इसी प्रकार कृत्तिकोदयके लिये आकाश आदिकी कल्पना भी प्रतीतिका उल्लंघन करनेमें तत्पर हो रही है। और वह कल्पना अतिप्रसंग दोषसे युक्त भी है, यानी यों तो चाक्षुषत्व आदि हेतु मी शब्दके अनित्यत्व आदिको साध देंगे जो कि इष्ट नहीं हैं।
तथा च न परपरिकल्पितं पक्षधर्मत्वं हेतोर्लक्षणं नाप्यन्वय इत्यभिधीयते ।
और तिस प्रकार होनेपर दूसरे प्रतिवादी विद्वान् बौद्धों करके सभी हेतुओंके लिये गढ लिया गया पक्षवृतित्व तो हेतुका लक्षण नहीं सिद्ध हुआ तथा बौद्धोंसे माना गया हेतुका दूसरा स्वरूप अन्वय भी हेतुका निर्दोष लक्षण नहीं है । अर्थात् सपक्षमें वर्त्तना यह रूप भी समीचीन नहीं है । इसी बातको कहा जाता है।
निःशेष सात्मकं जीवच्छरीरं परणामिना। पुंसा प्राणादिमत्त्वस्य त्वन्यथानुपपत्तितः ॥ १६३ ॥ सपक्षसत्त्वशून्यस्य हेतोरस्य समर्थनात् ।
नूनं निश्चीयते सद्भिर्नान्वयो हेतुलक्षणम् ॥ १६४ ॥
जीवित पुरुषोंके सम्पूर्ण शरीर (पक्ष ) उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप परिणाम करनेवाले पुरुष करके आत्मासहित हो रहे हैं ( साध्य ) । क्योंकि श्वास; उच्छास, नाडीगति, उष्णस्पर्श, आदिसे सहितपना तो अन्यथा यानी आत्मसहितपनेके बिना नहीं सिद्ध हो पाता है ( हेतु )। जो जो सात्मक नहीं है, वह प्राण आदिसे युक्त नहीं है, जैसे कि डेल, घट, पट, आदिक ( व्यतिरेक दृष्टान्त ) हैं । जो जो प्राणादिमान् हैं, वे वे सात्मक है, ऐसा अन्वय दृष्टान्त यहां नहीं मिलता है। क्योंकि सभी जीवित शरीरोंको पक्ष बना रक्खा है । पक्षसे बहिर्भूत सपक्ष होना चाहिये । बौद्ध लोग पक्षके भीतर अन्तर्व्याप्ति करके सपक्ष बना लेना इष्ट नहीं करते हैं । अतः सपक्ष सत्त्वसे रहित भी इस प्राणादिमत्व हेतुका समर्थन करनेसे सजन पुरुषों करके यह अवश्य निश्चित कर लिया जाता है कि हेतुका लक्षण अन्वय यानी " सपक्षमें वर्तना" नहीं है।
न चादर्शनमात्रेण व्यतिरेकः प्रसाध्यते । येन संशयहेतुत्वं रागादौ वक्तृतादिवत् ॥ १६५ ॥