________________
तत्त्वार्थ लोकवातिक
शब्दके अनित्यपनेको साध देवेगा अथवा रसोई घरका धुआं हेतु महासमुद्रमें अग्निको क्यों नहीं साध देवेगा ? जगत्को पक्ष बनाकर पक्षमें वृत्तिपना हेतुका लक्षण तो घट गया है। ___तथान्वयासंभवादिति चेत् कृत्तिकोदयादेः कुतोन्वयसंभवः पूर्वोपलब्धाकाशादेष्टान्तस्य सद्भावादन्वयः सिद्धयतीति चेत्,पूर्वोपलब्धजगतो दृष्टांतस्य सिद्धेश्चाक्षुषत्वयोगित्वादेरन्वयोस्तु विशेषाभावात् तथाप्यस्याविनाभावासंभवादगमकत्वे विनाभावस्वभावमेव पक्ष धर्मत्वं गमकत्वांगं लिंगस्य लक्षणं ।
बौद्ध कहते हैं कि तिस प्रकार चाक्षुषत्वका शद्बके अनित्यत्वके साथ अन्वय नहीं बना है। और महानस धूमका समुद्रकी अग्निके साथ अन्वय असम्भव है । अतः हेतुका पहिला रूप पक्षत्तिपना होते हुये भी दूसरा रूप सपक्षवृत्तिपना नहीं घटित होनेसे वे समीचीन हेतु नहीं हैं। इस प्रकार कहनेपर तो हम बौद्धोंसे पूछते हैं कि कृत्तिकोदय आदिको आकाशरूप पक्षमें धरकर आप बौद्धोंने कैसे अन्वयका संभवना मान लिया है ! बताओ । इसपर तुम यदि यों कहो कि हेतु और साध्यसे सहित होते हुये पहिले देखे जाचुके आकाश आदिक दृष्टान्त विद्यमान हैं । अतः कृत्तिकोदयका शकटोदयके साथ अन्वयसिद्ध हो जाता है । इस प्रकार कहनेपर तो हम भी आपादन करते हैं कि चाक्षुषत्व, शद्बानित्यत्व, आदिसे सहित होकर पहिले जान लिये गये जगत्को दृष्टान्तपना सिद्ध होनेसे चाक्षुषत्वयोगीपन, महानसधूमसे सहितपन, आदि हेतुओंका भी अन्वय बनजाओ। कोई विशेषता नहीं है । तैसा होनेपर भी यदि अविनाभावका असम्भव हो जानेसे इन चाक्षुषत्व, महानस धूम आदिको शद्बके अनित्यत्व या समुद्रमें अग्निरूप साध्योंका साधकपना नहीं है, ऐसा मानोगे तब तो अविनाभावस्वरूप ही पक्षवृत्तित्व सिद्ध हुआ और वह अन्यथानुपपत्ति ही हेतुके ज्ञापकपनका अङ्ग होता हुआ निर्दोष लक्षण है । त्रैरूप्य लक्षण नहीं है। यह जैनसिद्धान्त प्राप्त हो गया।
तथा च न धर्मधर्मिसमुदायः पक्षो नापि तत्तद्धर्मी तद्धर्मत्वस्याविनाभावस्वभावत्वाभावात् । किं तर्हि, साध्य एव पक्ष इति प्रतिपत्तव्यं तद्धमत्वस्यैवाविनामावित्वनियमादित्युच्यते।
और तिस प्रकार होनेपर धर्म और धर्मीका समुदायरूप पक्ष नहीं बनता है । यानी साध्यरूपी धर्म और साध्यवान् पर्वत आदि धर्मीका समुदाय होता हुआ पक्ष ( प्रतिज्ञा ) सिद्ध नहीं हुआ तथा उस उस हेतु और साध्यसे विशिष्ट होता हुआ धर्मी भी पक्ष नहीं है। क्योंकि उस पक्षमें वृत्ति रहनेवालेपनको अविनाभाव स्वभावपना नहीं है । भावार्थ-जो पक्षमें वृत्ति है वही अविनाभाव सहित है, ऐसा नियम नहीं रहा । तो पक्ष क्या है ! ऐसा प्रश्न होनेपर हम जैन उत्तर देते हैं कि अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुसे साधने योग्य शक्य, अभिप्रेत, अप्रसिद्धरूप साध्य ही पक्ष है । इस प्रकार समझ लेना चाहिये । ऐसे उस पक्षका धर्मपना ही अविनाभावीपनरूप नियम हो सकता है। इसी बातका ग्रन्थकारद्वारा स्पष्ट निरूपण किया जाता है।