________________
तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
पल्वलोदकनेमल्यं तदागस्त्युदये स च । -- तत्र हेतुः सुनिर्णीतः पूर्व शरदि सन्मतः ॥ १५८ ॥
पक्षमें नहीं रहनेवाले अन्य भी कई हेतु सद्धेतु हैं। छोटे सरोवरका जल ( पक्ष ) निर्मल है ( साध्य ) अगस्ति नामके ताराका उदय होनेसे ( हेतु ), इस अनुमानमें अगस्तिका उदय हेतु तो अगस्तिमें रहता है और निर्मलतारूप साध्य पोखराके पानीमें रहता है। पूर्व वर्षोंमें शरद ऋतुके आनेपर उस समय साध्यके साथ नियतरूपसे वहां हेतु रहता हुआ भले प्रकार निर्णीत हो रहा मान लिया गया है।
चंद्रादौ जलचंद्रादि सोपि तत्र तथाविधः ।
छायादिपादपादौ च सोपि तत्र कदाचन ॥ १५९ ॥ - तिस ही प्रकारके जलमें प्रतिबिंबित हो रहे चन्द्र आदिक भी आकाशमें स्थित हो रहे सूर्य, चन्द्रमा, आदिके उपराग ( ग्रहण ) कलाहीनता, आदिका अनुमान करनेमें गमक हो रहे हैं। उनका भी पहिले अविनाभाव संबंध वहां जाना जा चुका है । तथा वृक्ष, जल, आदिको साधनेमें छाया, शीतलता आदि हेतु पक्षमें वृत्ति न होते हुये भी गमक माने गये हैं । वहां कभी न कभी उन हेतुओंका अपने साध्यके साथ संबंध भी जाना जा चुका है।
पर्णकोयं स्वसद्धेतुर्बलादाहेति दूरगे । कार्यकारणभावस्याभावेपि सहभाविता ॥ १६० ॥
यह वटका वृक्ष है या ढाकका पेड़ है, इस प्रकार उनके पत्तोंको देखकर दूरमें प्राप्त हुये वृक्षोंमें बलात्कारसे वह हेतु ज्ञान करा लेता है। अतः अपने साध्यको सिद्ध करानेमें सद्धेतु कहा गया है । यहां दूरमें सूखे पडे हुये पत्ते और वृक्षका वर्तमानमें कार्यकारणभाव संबंध न होते हुये भी सहभावीपना ग्रहण कर लिया जाता है । यह हेतु भी अपने पक्षमें नहीं रहता है ।
पित्रोर्ब्राह्मणता पुत्रब्राह्मण्येऽपक्षधर्मकः । सिद्धो हेतुरतो नायं पक्षधर्मत्वलक्षणः ॥ १६१ ॥
यह लडका ( पक्ष ) ब्राह्मण है ( साध्य ) क्योंकि इसके माता पिता ब्राह्मण हैं ( हेतु )। माता पिताका ब्राह्मणपना माता पितामें है और पक्षकोटिमें पुत्र पड़ा हुआ है। अतः पक्षमें वर्तनेवाला धर्म नहीं होता हुआ भी यह हेतु सिद्ध है । इस कारण यह पक्षमें वर्तना हेतुका निर्दोष लक्षण नहीं है।