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तस्वार्थचिन्तामणिः
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यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता । कान्यथा स्यादनाश्वासाद्विकल्पस्य समुद्भवे ॥ १५६ ॥
बौद्धोंका ग्रन्थ है कि निर्विकल्पकज्ञान जिस ही अंशमें इस सविकल्पक बुद्धिको वासनाओं द्वारा उत्पन्न कराता है, उस ही विषयको जाननेमें इस प्रत्यक्षका प्रमाणपना विकल्पबुद्धिद्वारा व्यवस्थित किया जाता है। जैसे कि नीलप्रत्यक्षने नीलको विषय किया है और क्षणिकत्वको भी जाना है किन्तु नीलप्रत्यक्षके पीछे नीलका निश्चय करनेवाला विकल्पज्ञान तो उत्पन्न हो जाता है । अतः नीलको विषय करनेमें प्रत्यक्षकी प्रमाणता निश्चित होगई, किन्तु क्षणिकपनका पीछे विकल्पज्ञान नहीं हुआ है । अतः क्षणिकपनको विषय करने में प्रत्यक्षकी प्रमाणता व्यवस्थित नहीं हुई । तभी तो क्षणिकपनको साधनेके लिये पुनः अनुमानप्रमाण उठाना पडता है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकारका बौद्धसिद्धान्त अन्यथा यानी भाव आदिका प्रत्यक्षज्ञान होना न माननेपर भला कहां व्यवस्थित हो सकेगा ? विकल्पज्ञानकी समीचीन उत्पत्ति होनेमें कोई विश्वास नहीं रहेगा, यानी प्रत्यक्षकी भित्तिपर ही विकल्पज्ञानकी उत्पत्ति माननेमें तो श्रद्धा हो सकती है । अन्यथा नहीं। बौद्धोंने वैसा माना भी है । तभी प्रत्यक्षमें प्रमाणपनेका विश्वास हो सकता है। ... यदि हि भावादिविकल्पवासनायाः प्रबोधकारणमाभोगायेव न पुनर्भावादिदर्शनं तदा नीलादिविकल्पवासनाया अपि न नीलादिदर्शनं प्रबोधनिबंधनमाभोगशब्दयोरेव तत्कारणत्वापत्तेः । एवं च नीलादौ दर्शनाभावेपि विकल्पवासनायाः संभवात् सर्वत्र प्रत्यक्षपृष्ठभाविनो विकल्पस्य सामर्थ्यात्मत्यक्षस्य प्रमाणतावस्थापनेऽनाश्वास एव स्यात् । ___यदि बौद्ध यों कहें कि भाव आदिकोंकी विकल्पवासनाको जगानेवाला कारण पूर्णपना, अपूर्णपना, भोग, नहीं कहा जा सकना, आदि ही हैं, किन्तु फिर भाव, अभाव, आदिका प्रत्यक्ष करना तो वासनाका प्रबोधक नहीं है, तब तो हम जैन कह देंगे कि नील आदिकोंकी विकल्पवासनाओंका भी प्रबोध करानेवाला कारण नीलादिदर्शन नहीं है । परिपूर्णता और शद्वको ही उन नील आदिकी वासनाओंका प्रबोध करने में कारणपना प्राप्त हो जावेगा और इस प्रकार नील आदिमें दर्शनके न होनेपर भी विकल्पवासनाकी उत्पत्ति संभव हो जानेसे सभी स्थलोंपर प्रत्यक्षके पीछे होनेवाले विकल्पज्ञानकी सामर्थ्यसे प्रत्यक्षकी प्रमाणताके व्यवस्थापन करनेमें अविश्वास ही रहेगा। .
स्वलक्षणदर्शनप्रभवो विकल्पस्तत्प्रमाणताहेतुर्न सर्व इति चेन्नान्योन्याश्रयप्रसंगात् । तथाहि-सिद्ध स्वलक्षणदर्शनप्रभवत्वे विकल्पस्य ततस्तदर्शनप्रमाणतासिद्धिः तत्सिद्धौ च स्वस्य स्वलक्षणदर्शनमभवत्वसिद्धिरिति नान्यतरस्यापि तयोव्यवस्था।
बौद्ध कहते हैं कि सैकडों अन्टसन्ट वासनाओंसे संशय, विपर्ययरूप अनेक विकल्पज्ञान हो रहे हैं, वे पूर्ववर्ती प्रत्यक्षोंके प्रमाणपनकी व्यवस्था नहीं करा देते हैं । किन्तु स्वलक्षणतत्त्वके.