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तत्तार्थश्लोकवार्तिके
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न केवलं जैनस्य कथंचित्सविकल्पकं प्रत्यक्षं । किं तर्हि सौगतस्यापीत्याह;
केवल जैनोंके यहां ही प्रत्यक्षज्ञान कथंचित् सविकल्पक नहीं माना है । किन्तु बौद्धोंके यहां भी प्रत्यक्षको सविकल्पक इष्ट किया है । इस बातको स्पष्टकर आचार्य कहते हैं ।
सवितर्कविचारा हि पंचविज्ञानधातवः । निरूपणानुस्मरणविकल्पेनाविकल्पकाः ॥ २८ ॥ इत्येवं स्वयमिष्टत्वान्नैकांतेनाविकल्पकं ।
प्रत्यक्षं युक्तमास्थातुं परस्यापि विरोधतः ॥ २९ ॥
बौद्धोंके मतमें नाम, जाति, आदि भेदव्यवहाररूप कल्पनासे प्रत्यक्षको रहित माना है। किन्तु स्वकीय विकल्पोंसे भी रहित उस निर्विकल्पकको नहीं माना है । उनके यहां कहा है कि रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा, संस्कार, ये पांच विज्ञान धातुयें तो वितर्क करना और विचार करनेसे सहित है। हां, निरूपण आदि विकल्पोंसे रहित हैं। भावार्थ-प्रत्यक्षज्ञानमें वितर्क और विचाररूप कल्पनायें विद्यमान हैं । ज्ञान द्वारा आलंबन कारणको विषय करना वितर्क है । और उसी विषयमें दृढज्ञप्ति करना विचार है । ये दो कल्पनायें प्रत्यक्षमें हैं। किन्तु नाम आदिकी कल्पनारूप निरूपण और पहिले अनुभूत किये गये पदार्थके अनुसार विकल्प करनारूप अनुस्मरण आदि विकल्पों करके वह प्रत्यक्ष सविकल्पक नहीं हैं । अविकल्पक है। इस प्रकार बौद्धोंने यह वितर्क विचारसहितपनारूप विकल्प स्वयं प्रत्यक्षमें इष्ट किया है । अतः एकान्त आग्रह करके प्रत्यक्षको निर्विकल्पकपनेकी श्रद्धा करना उचित नहीं है । अतः स्वयं बौद्धके या अन्य वादियोंके यहां भी प्रत्यक्षको सर्वथा निर्विकल्पक माननेमें विरोध है।
विधूतकल्पनाजालं योगिप्रत्यक्षमेव चेत् ।
सर्वथा लक्षणाव्याप्तिदोषः केनास्य वार्यते ॥ ३०॥
यदि सर्वज्ञयोगियोंका प्रत्यक्ष ही कल्पनाओंके जालसे रहित है, ऐसा बौद्ध कहेंगे, तब तो सभी प्रकारसे इस प्रत्यक्षके बौद्धोक्तलक्षणका अव्याप्ति दोष भला किससे निवारण किया जा सकता है ? अर्थात् प्रत्यक्षका निर्विकल्पक लक्षण योगियोंके प्रत्यक्षमें तो घट गया और इन्द्रिय प्रत्यक्षों या मानस प्रत्यक्षोंमें नहीं गया, अतः अव्याप्त है।
लौकिकी कल्पनापोढा यतोध्यक्षं तदेव चेत् । शास्त्रीया सास्ति तत्रेति नैकान्तेनाविकल्पकम् ॥ ३१ ॥