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तत्वार्थचिन्तामणिः
है। अतः अभाव प्रमाण व्यर्थ नहीं है, इस प्रकार मीमांसकोंके कहनेपर तो यही आया कि अभाव प्रमाणस्वरूप स्मृति आदिक भी अव्यवहितरूपसे अभावको ही विषय करेंगी । इस कारण स्मृति आदिको भाव अंशमें प्रवर्तकपना क्यों नहीं विरुद्ध पडेगा ! अर्थात-अवश्य पडेगा, वही हमने पूर्व में कहा था । तिस कारण उपमान, अनुमान, अर्थापत्ति, अभाव, आगम, प्रमाणोंमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्कका अन्तर्गर्भ नहीं हो पाता है । इस कारण स्मृति आदिकको भिन्न प्रमाणपनेकी सिद्धि हो जाती है। अतः चार, पांच, छह अथवा और भी अधिक प्रमाणोंको कहनेकी टेव रखनेवाले नैयायिक, मीमांसक आदिकोंके यहां अपने अभीष्ट प्रमाणों की संख्याका विघात हो जाना सिद्ध हुआ।
तद्वक्ष्यमाणकात् सूत्रद्वयसामर्थ्यतः स्थितः। द्वित्वसंख्याविशेषोत्राकलंकैरभ्यधायि यः ॥ १८० ॥
तिस कारण अभी आगे कहे जानेवाले दो सूत्रोंके बलसे प्रमाणके दोपनकी संख्याका विशेष यहाँ प्रतिष्ठित हुआ, जो कि श्रीअकलंक महाराजके अनुयायी स्याद्वादी विद्वानों करके भी पूर्णरूपसे कहा गया है। अर्थात्-" तत्प्रमाणे " इस द्विचनकी सामर्थ्यसे दो प्रमाण मानने चाहिये । भविष्यके " आये परोक्षम्" और " प्रत्यक्षमन्यत्" इन दो सूत्रों द्वारा उमास्वामी महाराजने उसका कंठोक्त स्पष्टीकरण कहा है। श्री अकलंकदेव महोदयोंने भी राजवार्तिकमें वैसा दो प्रमाणोंमें ही सम्पूर्ण स्मृति, अर्थापत्ति, संभव, आदिकके गर्भित हो जानेका व्याख्यान किया है।
प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं त्रिधा श्रुतमविप्लुतम् । परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि प्रमाणे इति संग्रहः ॥ १८१॥
श्री अकलंक देवका यह अभिप्राय है कि विशदज्ञान प्रत्यक्ष है । वह अवधि, मनःपर्यय, और केवलझानके भेदसे तीन प्रकारका है । तथा अनेक बाधाओंके विप्लव होनेसे रहित श्रुतज्ञान और प्रत्यभिज्ञान तर्क आदिक तो परोक्ष प्रमाण है । इस प्रकार प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रमाण हैं । इनमें सभी प्रमाणोंका संग्रह हो जाता है।
त्रिधा प्रत्यक्षमित्येतत्सूत्रव्याहतमीक्ष्यते । प्रत्यक्षातींद्रियत्वस्य नियमादित्यपेशलम् ॥ १८२ ॥ अत्यक्षस्य स्वसंवित्तिः प्रत्यक्षस्याविरोधतः । वैशयांशस्य सद्भावात व्यवहारप्रसिद्धितः ॥ १८३॥....
कोई कहते हैं कि आप जैनोंने यह तीन प्रकारका जो प्रत्यक्ष माना है, यह तो सूत्रसे व्यापातयुज दीख रहा है । क्योंकि भवधि, मनःपर्यय और केवगाम इन तीन अतींद्रिय दी